Re: !! मेरी कहानियाँ > रजनीश मंगा !!
खुदाताला को भी शायद उस पर तरस आ गया था. एक एक दिन उसे मौत की ओर धकेल रहा था. कल की चंचल किशोरी सुगरां ने मौत के इंतज़ार में जो चारपाई पकड़ी तो फिर न उठी.
इधर अब्दुल अज़ीज़ सोचता कि उसकी बीवी अवश्य कोई नाटक खेल रही है. तन-मन से अच्छी भली होने पर भी बीमारी बहाना कर रही है और दूसरों की सहानुभूति अर्जित करने के लिये ही बिस्तर पर पड़ी हुई है. क्रोध के कारण आपे से बाहर हो जाता. कहता, “हरामखोर की बच्ची, तुझे तो पलंग तोड़ने के सिवा दूसरा कोई काम ही नहीं है. तू मर क्यों नहीं जाती.”
अब्दुल अज़ीज़ का क्रोध व क्षोभ किसी सीमा को नहीं जानता था. ऐसी मनःस्थिति में वह जो कर जाये, थोड़ा था. बीवी के बाल खींचते या उसे थप्पड़ मारते उसे लज्जा नहीं आती थी. बल्कि और उग्र हो कर कहता,
“देख, तू मेरी जान का आजार बनी हुई है. लगता है तेरे मरने से पहले मुझे खुशी देखना नसीब न होगा. मैं तुझको तलाक़ दूंगा, समझी !!! फिर मरना चाहे जीना.”
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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