Re: कुतुबनुमा
तय करनी ही होगी चिन्तन की दिशा
स्पर्धा की अंधी दौड़ में खबरों को गढ़ना, पैसा कमाने के लिए खबर को बेचना या किसी दुर्भावना से किसी के जीवन को ध्वस्त करने वाली खबरों को पकाना यही है आज का सच। भले ही इस प्रवृति पर अंकुश लगाने के काम को कोई नियन्ता संस्था अपने हाथ में ले या वरिष्ठ एवं अनुभवी मीडिया कर्मियों का कोई ग्रुप सामने आए, यह अभियान अब जरूर चलना चाहिए कि मीडिया में घुसी विकृतियों का शमन हो, और उसमें सकारात्मकता हो, सृजनात्मकता हो, सांस्कृतिक पहचान हो, कलात्मकता हो, राष्ट्रीयता का बोध हो, सामाजिक सरोकार हो, सम्मान हो, समृद्धि हो और उसके बाद हो स्पर्धा। यह सब कुछ हो मगर इसके निर्धारण के लिए आत्मसमझ का विकास होना पहली जरुरत है। पत्रकारिता एवं मीडिया के विकास को क्रमिक तौर पर देखें तो पत्रकारिता प्रगति भी कर रही है। यह पत्रकारिता और पत्रकारों के उत्थान का, उसके सम्मान का और उसके विस्तार का दौर है। बेशक पत्रकार का जीवन स्तर उच्चता की ओर बढ़ा है, उसके जीवन में आर्थिक समृद्धि आई है, उसका राजनीतिक हलकों और नौकरशाही में प्रभाव और रुतबा बढ़ा है। मगर इसके अनुपात में मीडिया संस्थान बेहिसाब समृद्ध और ताकतवर बने हैं। अब वह जमाना चला गया, जब संपादक सहित सभी पत्रकार चना-चबैना खाकर पत्रकारी धर्म निभाया करते थे। अब किसी को भी वेतन भत्तों के लाले नहीं हैं। उसकी अब राजनीतिक हलकों और प्रशासनिक तंत्र में इतनी घुसपैठ और रुआब है कि वह किसी अपराधी को भी जेल से छुड़ा सकता है, लाइसेंस, पट्टा, परमिट-कोटा और सोना उगलती खानों का आवंटन करा सकता है। मगर तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि मीडिया की विश्वसनीयता का क्षरण हुआ है। अब वह उद्योग बन, उद्योगपति का विजिटिंग कार्ड सा बन गया है। उसमें जन-मानस का दर्द नहीं है, सांस्कृतिक पहचान की झलक नहीं है, उसमें राष्ट्रबोध भी नहीं है। अब यह भी पता नहीं चलता कि ‘पेड न्यूज’ कौन सी है और ‘न्यूज’ कौन सी? पत्रकारिता अब प्रतिमान गढ़ने लगी है, खबरें बुनने लगी है। नतीजन उसकी विश्वसनीयता और मान में गिरावट आई है। बेशक पत्रकारिता एक दुरूह, जटिल, मनोवैज्ञानिक और जीवन कौशल की विधा है। बावजूद इसके यह निर्विवाद है कि पत्रकारिता में समृद्धि बढ़ी है। बाजार मूल्यों के अनुसार उसे पारिश्रमिक सुविधा हासिल है। भले ही इसकी संख्या कम हो, संस्थान भी कम हो लेकिन बदलते सामाजिक और व्यवासायिक मूल्यों के अनुरूप आज पत्रकार शान से जी सकता है। एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे में बताया गया है कि हमारे यहां मीडिया की विश्वसनीयता में 62 फीसदी तक कमी आई है। कारण स्पष्ट है कि इस कमी के पीछे पत्रकारिता के बाजारीकरण और गला काट स्पर्धा का प्रमुख हाथ है। क्या इससे यह नहीं लगता कि सब कुछ बाजारू सा हो गया है? आज माडिया का मानवीय पक्ष गायब है। दर्शकों, पाठकों या ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए तनाव और सनसनी का सृजन प्रारंभ हो गया है, जिससे पत्रकारिता की आत्मा का हनन होता चला गया है। इस दिशा में चिन्तन की दिशा निर्धारित करनी ही होगी।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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