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Originally Posted by Dark Saint Alaick
तय करनी ही होगी चिन्तन की दिशा
..... संपादक सहित सभी पत्रकार चना-चबैना खाकर पत्रकारी धर्म निभाया करते थे। अब किसी को भी वेतन भत्तों के लाले नहीं हैं। उसकी अब राजनीतिक हलकों और प्रशासनिक तंत्र में इतनी घुसपैठ और रुआब है कि वह किसी अपराधी को भी जेल से छुड़ा सकता है, लाइसेंस, पट्टा, परमिट-कोटा और सोना उगलती खानों का आवंटन करा सकता है। मगर तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि मीडिया की विश्वसनीयता का क्षरण हुआ है।....
एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे में बताया गया है कि हमारे यहां मीडिया की विश्वसनीयता में 62 फीसदी तक कमी आई है। ..... तनाव और सनसनी का सृजन प्रारंभ हो गया है, जिससे पत्रकारिता की आत्मा का हनन होता चला गया है। इस दिशा में चिन्तन की दिशा निर्धारित करनी ही होगी।
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बहुत अच्छे, अलैक जी. लोकतंत्र के चौथे खम्बे के रूप में आज आये बदलाव के फलस्वरूप पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों, चाहे वे संस्थानों के स्वामी हों अथवा मसीजीवी पत्रकार, के जीवन में आर्थिक सम्पन्नता एवं रुतबा-बुलंदी दोनों ही आये हैं. यह ओवरड्यू था चाहे इसमें चना चबेना खाने वालों का खून-पसीना भी परोक्ष रूप से सहयोगी था.
हाँ, विश्वसनीयता का जहाँ तक सवाल है, यह जरूर बड़ी चिंता का विषय है. जैसा कि स्पष्ट है यह बीमारी सिर्फ हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर नासूर बनती जा रही है. इसका इलाज भी चौथे स्तम्भ को ही खोजना होगा वरना काटजू साहब तो पहले ही प्रेस से जुड़े समुदाय को अपने तरीके से परिभाषित कर चुके है.