Re: जानिए हिन्दू धर्म को
मानवता का विकास
किसी भी व्यक्ति का सांस्कृतिक महत्त्व इस बात पर निर्भर है कि उसने अपने अहम् से अपने को कितना बंधन-मुक्त कर लिया है । वह व्यक्ति भी संस्कृत है, जो अपनी आत्मा को माँज कर दूसरे के उपकार के लिए उसे नम्र और विनीत बनाता है । जितना व्यक्ति मन, कर्म, वचन से दूसरों के प्रति उपकार की भावनाओं और विचारों को प्रधानता देगा, उसी अनुपात से समाज में उसका सांस्कृतिक महत्त्व बढ़ेगा । दूसरों के प्रति की गई भलाई अथवा बुराई को ध्यान में रखकर ही हम किसी व्यक्ति को भला-बुरा कहते हैं । सामाजिक सद्गुण ही, जिनमें दूसरों के प्रति अपने र्कत्तव्य-पालन या परोपकार की भावना प्रमुख हैं, व्यक्ति की संस्कृति को प्रौढ़ बनाती है ।
संसार के जिन विचारकों ने इन विचार तथा कार्य-प्रणालियों को सोचा और निश्चय किया है, उनमें भारतीय विचारक सबसे आगे रहे हैं । विचारों के पकड़ और चिन्तन की गहराई में हिन्दू धर्म की तुलना अन्य सम्प्रदायों से नहीं हो सकती । भारत के हिन्दू विचारकों ने जीवन मंथन कर जो नवनीत निकाला है, उसके मूलभूत सिद्धांतों में वह कोई दोष नहीं मिलता, जो अन्य सम्प्रदायों या मत-मजहबों में मिल जाता है । हिन्दू-धर्म महान् मानव धर्म है; व्यापक है और समस्त मानव मात्र के लिए कल्याणकारी है । वह मनुष्य में ऐसे भाव और विचार जागृत करता है । जिन पर आचरण करने से मनुष्य और समाज स्थायी रूप से सुख और शांति का अमृत-घूँट पी सकता है । हिंदू संस्कृति में जिन उदार तत्वों का समावेश है, उनमें तत्वज्ञान के वे मूल सिद्धांत रखे गये हैं, जिनको जीवन में ढालने से आदमी सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' बन सकता है ।
'संस्कृति' शब्द का अर्थ है सफाई, स्वच्छता, शुद्धि या सुधार । जो व्यक्ति सही अर्थों में शुद्ध है, जिसका जीवन परिष्कृत है, जिसकी रहन-सहन में कोई दोष नहीं है, जिसका आचार-व्यवहार शुद्ध है, वही सभ्य और सुसंस्कृत कहा जायेगा । ''सम्यक् करणं संस्कृति''-प्रकृति की दी हुई भद्दी, मोटी कुदरती चीज को सुन्दर बनाना, सम्भाल कर रखना, अधिक उपयोगी और श्रेष्ठ बनाना उसकी संस्कृति है । जब हम भारतीय या हिन्दू संस्कृति शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो हमारा तात्पर्य उन मूलभूत मानव-जीवन में अच्छे संस्कार उत्पन्न हो सकते है और जीवन शुद्ध परिष्कृत बन सकता है । हम देखते हैं कि प्रकृति में पाई जाने वाली वस्तु प्रायः साफ नहीं होती । बहुमूल्य हीरे, मोती, मानिक आदि सभी को शुद्ध करना पड़ता है । कटाई और सफाई से उनका सौंदर्य और निखर उठता है और कीमत बढ़ जाती है । इसी प्रकार सुसंस्कृत होने से मानव का अन्तर और बाह्य जीवन सुन्दर और सुखी बन जाता है । संस्कृति व्यक्ति समाज और देश के लिए अधिक उपयोगी होता है । उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन सम्भाला हुआ, सुन्दर, आकर्षक और अधिक उपयोगी होता है, फिर उस व्यक्त्ि का परिवार तथा उनके बच्चों के संस्कार भी अच्छे बनते हैं । इस प्रकार मानव मात्र ऊँचा और परिष्कृत होता है और सद्भावना, सच्चरित्रता और सद्गुणों का विकास होता जाता है । अच्छे संस्कार उत्पन्न होने से मन, शरीर और आत्मा तीनों ही सही दिशाओं में विकसित होते हैं । मनुष्य पर संस्कारों का ही गुप्त रूप से ही राज्य होता है । जो कुछ संस्कार होते हैं, वैसा ही चरित्र और क्रियाएँ होती हैं । इस गुप्त आंतरिक केन्द्र (संस्कार) के सुधारने से शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि का राजमार्ग खल जाता है । तात्पर्य यह है कि संस्कृति जितनी अधिक फैलती है, जितना ही उसका दायरा बढ़ता जाता है, उतना ही मारव स्वर्ग के स्थायी सौंदर्य और सुख के समीप आता जाता है । सुसंस्कृत मनुष्यों के समाज में ही अक्ष्य सुख-शांति का आनंद लिया जा सकता है । संसार की समस्त संस्कृतियों में भारत की संस्कृति ही प्राचीनतम है । आध्यात्मिक प्रकाश संसार को भारत की देन है । गीता, उपनिषद, पुराण इत्यादि श्रेष्ठतम मस्तिष्क की उपज हैं । हमारे जीवन का संचालन आध्यात्मिक आधारभूत तत्त्वों पर टिका हुआ है । भारत में खान-पान, सोना-बैठना, शौच-स्नान, जन्म-मरण, यात्रा, विवाह, तीज-त्यौहार आदि उत्सवों का निर्माण भी आध्यात्मिक बुनियादों पर है । जीवन का ऐसा कोई भी पहलू नहीं है, जिसमें अध्यात्म का समावेश न हो, या जिस पर पर्याप्त चिन्तन या मनन न हुआ हो ।
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