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Old 18-08-2013, 07:06 PM   #5
jai_bhardwaj
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Default Re: मोरा गोरा रंग लई ले

सचिन-दा कुछ देर हारमोनियम पर धुन बजाते रहे और आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की. टूटे-टूटे शब्द आने लगे :

दो-चार...दो-चार...दुई-चार पग पे आँगना-
दुई-चार पग....बैरी कंगना छनक ना-

ग़लत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए :

बैरी कगना छनक ना
मोहे कोसो दूर लागे
दुई-चार पग पे अँगना-

सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूँ धुन की बहर हाथ में आ गई.
चला आया. गुनगुनाता रहा. कल्याणी के मूड को सोचता रहा. कल्याणी के खयाल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हाँ, एक बात ज़िक्र के काबिल है. एक ख़याल आया, चाँद से मिन्नत करके कहेगी :

मैं पिया को देख आऊँ
जरा मुँह फराई ले चंदा

फौरन ख़याल आया, शैलेन्द्र यही ख़याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं :
दम-भर के जो मुँह फेरे-ओचंदा—
मैं उन से प्यार कर लूँगी
बातें हजार कर लूँगी
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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