Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
लालिमा
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लालिमा
कितनी
भली सी
मनमोहक सी
नयनाभिराम सी
लेकिन है
इतनी खूबसूरत
ये
तभी
गर हो
किसी की
माँग मे
उगते-छिपते
सूरज मे
हँसते चेहरे मे
अल्हड़ ख्यालों मे
मचलते सवालों मे
मगर
हो जाती है
ये
कई बार
इतनी डरावनी
जब ये
होती है
किसी रोती
आँख मे
चोटिल जिस्म पर
क्रोध से जलते
नैनों मे
लालची
वीभत्स
अश्लील
इरादों मे
और
दहशत का
पर्याय है ये
सड़को पर
बहते रक्त
की
लालिमा
दीपक खत्री 'रौनक'
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