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Old 17-12-2010, 09:06 AM   #25
ABHAY
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Post Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर

चौ.-प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।1।।


प्रभुको देखकर मुनि वसिष्ठ जी के मन में प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्यके समान था। उसका सौन्दर्य वर्णन नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजी उसपर विराज गये।।1।।

जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।।
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।2।।


श्रीजानकीजीके सहित श्रीरघुनाथजीको देखकर मुनियों का समुदाय अत्यन्त ही हर्षित हुआ। तब ब्राह्मणों ने वेदमन्त्रोंका उच्चारण किया। आकाशमें देवता और मुनि जय हो, जय हो ऐसी पुकार करने लगे।।2।।

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।3।।


[सबसे] पहले मुनि वसिष्ठजीने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को [तिलक करनेकी] आज्ञा दी। पुत्रको राजसिंहासनपर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी।।3।।

बिप्रन्ह दान बिबिधि बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे।।
सिंघासन पर त्रिभुवन साईं। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं।।4।।


उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकारके दान दिये और सम्पूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)। त्रिभुवन के स्वामी श्रीरामचन्द्रजीको [अयोध्या के ] सिंहासन पर [विराजित] देखकर देवताओंने नगाड़े बजाये।।4।।
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