मेरी रचनाएँ-3- दीपक खत्री 'रौनक'
परिन्दा
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परिन्दा
यूँ पंख फैलाये
उड़ रहा
नील गगन
मे
लहराता
उन्मुक्त सा
बेफिक्र
जैसे छूना
चाहता हो
हर
एक बुलंदी
हौसला भरी
उड़ान के
साथ
कर रहा
ताल मेल
हवाओं
से
जैसे सिखा
रहा हो मुझे
कि क्यों मै
रहा हूँ रेंग
क्यों नहीं
है मेरे हौसलों
मे उड़ान
क्यों मुझे नहीं
दिखाई देती
वो बुलंदी
क्यों मै
नहीं बन
सकता उस
जैसा
एक
परिन्दा
दीपकखत्री 'रौनक'
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