Re: कुतुबनुमा
बंद करना होगा शब्दों से खिलवाड़
आधुनिकता के इस दौर में परिवर्तन की एक व्यापक बयार चल रही है। खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, सोच-फिक्र, शिष्टाचार, पढ़ाई-लिखाई, रिश्ते-नाते, अच्छे-बुरे की परिभाषा सब बदल रहा है। जाहिर है पत्रकारिता जैसा जिम्मेदारी भरा पेशा भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं है। परिवर्तन के इस दौर में तमाम क्षेत्रों में जहां सकारात्मक परिवर्तन देखे जा रहे हैं वहीं पत्रकारिता के क्षेत्र में आधुनिकता व सकारात्मकता के बावजूद कुछ ऐसे परिवर्तन दर्ज किए जा रहे हैं जो न केवल पत्रकारिता जैसे जिम्मेदाराना पेशे को रुसवा व बदनाम कर रहे हैं बल्कि हमारे देश के अदब, साहित्य तथा शिष्टाचार की प्राचीन रिवायत पर भी आघात पहुंचा रहे हैं। रेडियो तथा प्रारंभिक दौर के टेलीविजन की यदि हम बात करें तो हमें कुछ आवाजें ऐसी याद आएंगी जो शायद आज भी कानों में गूंजती होंगी। कमलेश्वर, देवकीनंदन पांडे, अशोक वाजपेयी, अमीन सयानी, जसदेव सिंह, जे.बी. रमन, शम्मी नारंग जैसे कार्यक्रम प्रस्तोता की आकर्षक, सुरीली, प्रभावशाली तथा दमदार आवाज। इनके बोलने में या कार्यक्रम के प्रस्तुतीकरण के अंदाज में न केवल प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के प्रति इनकी गहरी समझ व सूझबूझ होती थी, बल्कि इनके मुंह से निकलने वाले शब्द साहित्य व शब्दोच्चारण की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते थे। होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि रेडियो व टीवी जैसे संचार माध्यमों का प्रस्तोता समाज पर, विशेषकर युवा पीढ़ी पर साहित्य सम्बंधी प्रभाव छोड़ता है। आज के युग की ग्लैमर भरी पत्रकारिता पर अगर हम नजर डालें तो आज टीवी के प्रस्तोता कार्यक्रम प्रस्तुतीकरण के अपने अंदाज, दिखावे तथा बात का बतंगड़ बनाने जैसी शैली पर अधिक विश्वास करते हैं। ऐसे में आज की पत्रकारिता ऐसे लोगों के हाथों में जाने से साहित्य व शिष्टता से दूर होती दिखाई देने लगी है। उनके बोलने के अंदाज व उच्चारण का साहित्य से दूर दूर तक रिश्ता नजर नहीं आता। जिम्मेदार पत्रकारों, कार्यक्रम प्रस्तोताओं व एंकर को यह भलीभांति ध्यान रखना चाहिए कि उनके मुंह से निकले हुए एक-एक शब्द व उनके अंदाज दर्शकों व श्रोताओं द्वारा ग्रहण किए जा रहे हैं। जो कुछ वे बोल रहे हैं या जिस अंदाज में उसे प्रस्तुत कर रहे हैं उसी को हमारा समाज साहित्य व शिष्टता के पैमानों पर तौलता है तथा उसकी मिसालें पेश करता है। ऐसे पत्रकार व कार्यक्रम प्रस्तोता साहित्य व उच्चारण की समझ रखने वाले लोगों की नजरों से तो गिरते ही हैं,अपने गलत उच्चारण व बेतुके प्रस्तुतीकरण से नई पीढ़ी पर भी अपना दुष्प्रभाव छोड़ते हैं। ऐसे लोगों को पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश से पहले अपना साहित्यिक ज्ञान जरूर बढ़ाना चाहिए। खासतौर पर शब्दोच्चारण के क्षेत्र में तो अवश्य पूरा नियंत्रण होना चाहिए। अन्यथा जिस प्रकार इन दिनो कई चैनल पर कार्यक्रम प्रस्तोता अपने गलत शब्दोच्चारण के चलते साहित्य से दूर होते जा रहे हैं,आने वाली युवा पीढ़ी को भी उससे वंचित कर रहे हैं। समाचार चैनल मालिकों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे प्रस्तोता के रूप में ऐसे लोगों का चयन करें जो शब्दों के साथ खिलवाड़ न करें क्योंकि यह खिलवाड़ उन्ही के चैनल पर भारी भी पड़ सकता है।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
|