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Originally Posted by Pavitra
हम अक्सर दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वो हमें समझे , पर ये नहीं देखते कि हम भी तो उसको समझने का प्रयास नहीं कर रहे , जब हम उसे नहीं समझना चाहते तो उससे क्यों उम्मीद करें कि वो हमें समझे।
इसलिए अगर हम चाहते हैं कि दूसरे लोग हमें समझें तो हमें भी उन्हें समझने का प्रयास करना चाहिए।
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Originally Posted by Pavitra
आपसे सहमत हूँ मैं, जो पाने की अभिलाषा हो वो देना शुरू करें तो अपने आप हमें वो ही चीज़ मिलना शुरू हो जाएगी।
पर इस स्वार्थी दुनिया में आज सभी पाने की ही अभिलाषा रखते हैं इसलिए मैंने लिखा था कि - ऐसा क्या करें जो ये सब हमें मिले।
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पवित्रा जी आपने अपने नाम की तरह बहुत पवित्र बात कही है , और इन रिश्तों की वजह से जो हमे मिले , प्रेम शोहरत और संतुष्टि उसको रिश्तों से जोड़ा है आपने. कुछ हद तक सही है की रिश्तों की वजह से येसब मिलता है लोगो को, पर मेरा मानना है की , रिश्ते तो रिश्ते हैं जो निभाने पड़ते है कई बार, और कई बार हम जीते है इन रिश्तों को वो इतने गहरे हो जाते हैं .... और कई बार देखने के लिए हम अलग होते है किन्तु हमेशा जाने अनजाने भी वो रिश्ते हमसे जुड़े रहते हैं जीवन भर ...
आपने सबसे पहले रिश्तोको लेकर कुछ कहने को कहा है ना , तो मै कहूँगी की कई बार खून के रिश्ते , दिल के रिश्तो से छोटे हो जाते हैं क्यूंकि हम देखते हैं, सुनते हैं की समाज में मकान को लेकरऔर धन को लेकर bhai _bhai कोर्ट तक जाते हैं तब खून के रिश्तों का खून हो जाता है ,और कहीं--- एक अनजान परायो के लिए इतना कुछ करते देखे गए हैं जो की अपनो से बढ़कर बन जाते हैं . और दिल में बस जाते है और साथ ही लोग उसके लिए बहुत आदर सम्मान की भावना रखते है और अपनों से ज्यदा उन्हें मानते हैं क्यूंकि, दुःख के समय में एइसे भले इन्सान ने उनका साथ दिया होता है ...इसलिए ही कहीं रिश्ते लोहे की जंजीर जितने मजबूत होते है तो कही मोमबत्ती की तरह पिघल जाते हैं .
दूसरी वजह ये भी है की दिल के रिश्ते हम खुद बनाते हैं जबकि दुसरे रिश्ते हमे वंशानुगत मिलते हैं या फिर किसी के द्वारा हमे दिए जाते हैं ,जेइसे की वर कन्या----- वर कन्या का विवाह पहले के ज़माने में और आज भी कहीं कहीं माँ बाप की मरजी से होता है औरहोता था तब ये रिश्ता निभाया जाता था न की इसे दिल से अपनाया जाता था ये न कहूँगी की हरेक के लिए ये बात लागु होती है पर हर जगह हर दिल नही मिल पाते .
अब करें बात समाज की तो चूँकि हम एक सामाजिक प्राणी हैं इन्सान हैं समाज के बिना तो हमारा वजूद ही नही जन्म से लेकर मृत्यु तक हमें समाज का साथ चहिये होता है एकेले इन्सान खुद को तनहा पाकर जी नही सकता वो कही न कही से कोई तो रिश्ता बना ही लेता है भले वो दुनिया में अकेला ही क्यों न हो कोई दोस्त बना लिए कोई bhai या बहन बना लेते हैं एइसे रिश्तो के बिना जी नही सकते हम और रिश्तो से हम अपने आप बंधे चले जाते हैं ... सबसे बड़ा उदहारण हम सब ही हैं -- हैं की नही? अब हम सबके बिच एक अनोखा सा रिश्ता बन ही गया है न क्यूँ की सब इंतजार करते हैं की हैं कि हमारे ये दोस्त आये क्यों नही... फिर आये और लिखा तो उसके रिप्लाई में लिखना और बहस करना ये सब अब और कुछ नही तो वाचक और लेखक का रिश्ता बन ही गया न ? ये जस्ट मेने एक उदाहरण ही दिया बाकि इससे हम समझ सकते है की भले जो भी हो कच्चे या मजबूत पर बिन रिश्तों के इन्सान नही जी सकता फिर भले उन रिश्तो से हमे कुछ मिले या न मिले ...
अगला शब्द होगा " शोहरत " तब आगे और लिखूंगी पवित्रा जी . अब अगले वाचक की लेखनी का इंतज़ार रहेगा ...