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Old 30-10-2011, 07:28 PM   #19
Dark Saint Alaick
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Default Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में

शान-उल-हक़ 'हक्की'




दिल्ली में 1927 में जन्मे शान-उल-हक़ की शायरी कटु यथार्थ से रू-ब-रू होकर भी एक सुखद संसार का सृजन करती है ! दुखों के बरअक्स उनकी उम्मीद बड़ी है ! वे दुनियावी झंझटों का वर्णन करते हैं, लेकिन आशा का दामन नहीं छोड़ते ! अनेक दौर अपनी शायरी में समेटते हुए और वर्तमान पर नज़र करते हुए भी आने वाला कल उनके तईं धुंधला नहीं है ! वे गर्मजोशी से उसकी बात करते हैं और अपनी शायरी को किसी भी समय में पढ़े जाने लायक बना जाते हैं ! यहां पढ़िए उनकी ऐसी ही एक ग़ज़ल !


दुनिया की ही राह पे आख़िर रफ़्ता-रफ़्ता आना होगा
दर्द भी देगा साथ कहां तक, बेदिल ही बन जाना होगा

हैरत क्या है, हम से बढ़ कर कौन भला बेगाना होगा
खुद अपने को भूल चुके हैं, तुमने क्या पहचाना होगा

दिल का ठिकाना ढूंड लिया है और कहां अब जाना होगा
हम होंगे और वहशत होगी, और यही वीराना होगा

बीत गया जो याद में तेरी, इक इक लम्हे का है ध्यान
उल्फ़त में जी हारना कैसा, जो खोया सब पाना होगा

और तो सब दुख बंट जाते हैं, दिल के दर्द को कौन बटाए
दुनिया के ग़म बरहक़ लेकिन, अपना भी ग़म खाना होगा

दिल में हुज़ूमे-दर्द लेकिन, आह के भी औसान नहीं
इस बदली को यूं ही आख़िर बिन बरसे छट जाना होगा

हम तो फ़साना कह कर अपने दिल का बोझ उतार चले
तुम जो कहोगे अपने दिल से वो कैसा अफ़साना होगा

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रफ़्ता-रफ़्ता : धीरे-धीरे, वहशत : दीवानगी, लम्हे : पल, क्षण, उल्फ़त : प्रेम, बरहक़ : अपनी जगह उचित, हुज़ूमे-दर्द : पीड़ा का समूह, औसान : होश-हवास, फ़साना : अफ़साना, कहानी
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु

Last edited by Dark Saint Alaick; 16-11-2011 at 03:08 AM.
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