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Old 18-01-2014, 06:27 PM   #1
dipu
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Default तेंदुलकर, ध्यान चंद, राजनीति और भारत रत्न

सचिन तेंदुलकर एक जगमगाते और लम्बे करियर के बाद रिटायर हो चुके हैं। क्रिकेट से सन्यास लेने पर पूरे देश ने उन्हें भावुक विदाई दी और सरकार ने उन्हें दिया भारत रत्न होने का सम्मान। सचिन को मिले इस सम्मान के बाद से काफ़ी बहस चल रही है। इसी विषय पर मैं भी कुछ लिखना चाहता था लेकिन मैंने जानबूझकर सचिन की क्रिकेट से विदाई वाले दिन नहीं लिखा। मैं चाहता था कि कुछ दिन बीत जाएँ ताकि सचिन से जुड़ा भावनाओं का तूफ़ान मेरे और उनके अन्य प्रशंसको के दिल में कुछ शांत हो सके। यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि भावुक क्षणों में हम सही तरीके से सोच नहीं पाते। आज सोचा कि अब इस मसले के बारे में सोचने और लिखने की ज़रूरत है।

मेरा मानना है कि सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने में बहुत जल्दबाज़ी दिखाई है। ठीक रिटायरमेंट के दिन उन्हें यह सम्मान देना कतई ज़रूरी नहीं था। क्रिकेट से विदाई के दिन इस पुरस्कार की घोषणा न केवल इसे जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय बनाती है बल्कि यह भावनाओं में बहकर लिया गया निर्णय भी लगता है। ऊपर से चुनावी माहौल के चलते इसे राजनीति से प्रेरित भी कहा जा सकता है।

जब मेजर ध्यान चंद आज तक इंतज़ार कर रहे हैं तो सचिन भी कुछ तो इंतज़ार कर ही सकते थे।

भारत रत्न देने के लिए कोई वस्तुनिष्ठ पैमाना होना चाहिए और उस पैमाने पर खरा उतरने के बाद ही किसी को यह सम्मान मिलना चाहिए –लेकिन शुरुआत से ही यह पुरस्कार राजनेताओं की निजी इच्छाओं और राजनीतिक ज़रूरतों को ध्यान में रखकर दिया जाता रहा है। विश्व में सबसे अधिक सम्मानित पुरस्कार नोबेल पुरस्कार है। ऐसा नहीं है कि नोबेल पुरस्कार का वितरण पूरी तरह से त्रुटिहीन है। नोबेल शांति पुरस्कार के लिए कोई वस्तुनिष्ठ पैमाना नहीं है लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों हेतु अपेक्षाकृत बेहतर पैमाने तय किए गए हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं कि स्टीफ़न हॉकिंग इस समय के सबसे महान भौतिकविद्* हैं पर उन्हें अभी तक नोबेल पुरस्कार इसलिए नहीं मिला है क्योंकि उनके द्वारा कही गई बातों को वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सका है। वैज्ञानिक प्रयोगों और परीक्षणों द्वारा सत्य सिद्ध होने पर ही किसी खोज को नोबेल पुरस्कार के लिए योग्य माना जाता है।

वैसे किसी भी पुरस्कार के संदर्भ में सम्पूर्ण वस्तुनिष्ठता संभव नहीं होती –कहीं न कहीं तो चयन प्रक्रिया में मानव विवेक अपनी भूमिका अदा करता ही है। सो, ऐसे में नोबेल और भारत रत्न जैसे बड़े पुरस्कारों का विवादित होना स्वभाविक ही है।

बहरहाल, सचिन तेंदुलकर के मसले पर वापस आते हैं। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में यह सामने आया है कि सरकार ने भारत रत्न के नियमों में फेर-बदल केवल इसलिए किया ताकि तेंदुलकर को इस पुरस्कार से नवाज़ा जा सके। दिसम्बर 2011 में किए गए इस संशोधन के बाद अब भारत रत्न किसी भी क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति को मिलना संभव हो गया है। पहले भारत रत्न का सम्मान केवल कला, साहित्य, विज्ञान और समाजसेवा से जुड़े व्यक्तियों को ही दिया जाता था। मेरे विचार में यह फेर-बदल बहुत पहले कर दिया जाना चाहिए था। भारत में केवल कला, साहित्य, विज्ञान और समाजसेवा से ही जुड़े रत्न होते हैं –ऐसा मानना बहुत ग़लत बात है। खेल और व्यापार ऐसे प्रमुख क्षेत्र हैं जो अभी तक इस पुरस्कार से वंचित रहे हैं।

अब जबकि खिलाड़ियों को भी यह पुरस्कार देने का रास्ता बनाया जा चुका है –तो सबसे पहले उन खिलाड़ियों को पुरस्कार मिलना चाहिए था जो इसके अपेक्षाकृत अधिक लम्बे समय से अधिकारी रहे हैं। मेजर ध्यान चंद हर तरह से इस पुरस्कार के अधिकारी हैं और अच्छा होता यदि खेलों के क्षेत्र में पहला भारत रत्न पुरस्कार उन्हीं को दिया जाता।

भारत क्रिकेट के पीछे पागल देश है। हमारे इसी पागलपन के चलते बी.सी.सी.आई के लोग मोटा पैसा कमाते हैं। यह भी ध्यान दें कि बी.सी.सी.आई. स्पष्ट रूप से कह चुकी है कि सचिन जैसे क्रिकेटर भारत के लिए नहीं बल्कि बी.सी.सी.आई के लिए खेलते हैं। यह भारत की उस जनता के मुँह पर ज़ोरदार तमाचा है जो भारत के क्रिकेट को देश और देशसेवा से जोड़कर देखती है। इस सबके बावज़ूद क्रिकेट के नाम पर भारत में बहुत कुछ करवाया जा सकता है –और शायद यही कारण है कि सरकार ने सचिन को भारत रत्न के लिए चुना। सचिन के खेल की महानता पर कोई भी प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया जा सकता, लेकिन मेरी नज़र में सुनील गावस्कर भी सचिन के बराबर ही महान क्रिकेटर रहे। सचिन के करियर के दौरान क्रिकेट के नियम कुछ ऐसे बदले कि रन बनाना अपेक्षाकृत आसान हो गया। पिचें भी बल्लेबाज़ों को मदद देने वाली बनाई जाने लगीं। गावस्कर के समय में गेंद और बल्ले के बीच बराबर का मुकाबिला होता था –जबकि आज गेंदबाज़ केवल पिटने के लिए मजबूर हैं (हाल में हुई भारत-ऑस्ट्रेलिया सीरीज़ इसका एक उदाहरण है)… ऐसे में आप आंकड़ों के कारण चाहे तो सचिन को ही पुरस्कार दें लेकिन सुनील गावस्कर के नाम पर विचार भी अनिवार्य है।

इसके अलावा क्रिकेट से सचिन को मिली अरबों रुपए की दौलत को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। सचिन की खेल प्रतिभा और भारतीय टीम के प्रति उनका समपर्ण वंदनीय है लेकिन सचिन केवल देश के लिए नहीं खेले –वे पैसे के लिए भी खेले। पैसे के लिए खेलने में कोई बुराई नहीं है लेकिन सभी खेल और खिलाड़ी समान रूप से दौलत व शोहरत नहीं कमा पाते। जहाँ एक ओर हमारे पहलवानों को ठीक से खुराक भी नहीं मिल पाती है, महिला हॉकी खिलाड़ियों को चाय परोसने का काम करना पड़ता है, खेल का सामान न होने के कारण कितनों को खेल छोड़ना पड़ता है –ऐसे में सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने कि बजाए कुछ अन्य ऐसे खिलाड़ियों को यह सम्मान दिया जाना चाहिए था जो इसके लायक हैं और जिन्हें यह पुरस्कार मिलने से उनके खेलों में सुधार की संभावना बढ़े। पुरस्कार कई बार व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक स्तर को उठाने में भी सहायक सिद्ध होते हैं। सचिन को न तो आर्थिक कमी है और न ही शोहरत की कमी है। सचिन को भारत रत्न मिलना चाहिए लेकिन उनसे पहले कई अन्य दावेदार हैं जिनका केस सचिन के करियर जितना ही मज़बूत है लेकिन उनके खेल क्रिकेट की तरह भाग्यशाली नहीं हैं।

मेजर ध्यान चंद केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अपनी हॉकी के लिए सम्मानित हैं। उन्हें मानव इतिहास में आज तक का सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी माना जाता है और इस बात को मानने में कोई भी विवाद नहीं है। मेजर साब की तुलना विश्व में किसी अन्य हॉकी खिलाड़ी से नहीं की जाती। वे हॉकी में निर्विवादित-रूप से सर्वश्रेष्ठ हैं। जबकि सर डॉन ब्रैडमैन, सुनील गावस्कर, ब्रायन लारा, जाक कैलिस और रिकी पोंटिग की तुलना अक्सर सचिन से की जाती है (अर्थात मानव इतिहास में सर्वश्रेष्ठ क्रिकेटर होने का दावा सचिन निर्विवादित रूप से नहीं कर सकते)। भारत के राष्ट्रीय खेल ने अगर शिखर देखा तो वो भी मेजर साब के समय में ही देखा। उनकी कप्तानी में भारत ने 1928, 1932 और 1936 के ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीता। आइए मेजर ध्यान चंद के बारे में कुछ रोचक तथ्य जानते हैं:

* एक बार एक मैच के दौरान मेजर साब एक भी गोल नहीं कर पा रहे थे। बार-बार कोशिश करने पर भी उनका शॉट गोल-पोस्ट के अंदर नहीं जा रहा था। इस पर उन्होनें रैफ़री से कहा कि गोल-पोस्ट की चौड़ाई मानकों के मुताबिक नहीं है। जब गोल-पोस्ट को मापा गया तो वाकई मेजर साब की बात ठीक निकली। गोल-पोस्ट मानक चौड़ाई से थोड़ा-सा छोटा था!

* 1936 के बर्लिन ओलंपिक खेलों में लोग बाकी सारे खेल छोड़कर हॉकी खेलते हुए मेजर साब को देखने के लिए आते थे। उस समय एक जर्मन अखबार ने लिखा कि इस बार ओलंपिक में जादू का खेल भी दिखाया जा रहा है (मेजर ध्यान चंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता है)। पहले मैच के बाद ही पूरे बर्लिन में पोस्टर लग गए थे कि आइए और भारत से आए जादूगर को हॉकी स्टेडियम में देखिए।

* एक बार के वृद्ध महिला ने मेजर साब से कहा कि हॉकी की जगह मेरी बेंत से खेलकर दिखाओ तो जाने! मेजर साब ने न केवल उस महिला की बेंत से हॉकी मैच खेला बल्कि कई गोल भी किए।

* यह भी कहा जाता है कि बर्लिन में मेजर साब के खेल से तानाशाह हिटलर इतना प्रभावित हुआ कि उसने मेजर साब को जर्मनी आकर रहने की पेशकश की। हिटलर ने कहा कि भारत में आप मेजर हैं लेकिन हम आपको कर्नल का पद देंगे। भारत के सपूत मेजर साब ने इस पेशकश को ठुकरा दिया (हिटलर की पेशकश को जर्मनी में ही खड़े होकर ठुकराना आसान बात नहीं थी!) हिटलर के साथ मेजर ध्यान चंद की मुलाकात बर्लिन ओलंपिक में हॉकी फ़ाइनल के बाद हुई। इस मैच में भारत ने जर्मनी को 8-1 से रौंद डाला था (आठ में से तीन गोल मेजर साब के थे)… आप समझ सकते हैं कि हिटलर जैसा व्यक्ति मन-ही-मन मेजर साब से कितना नाराज़ रहा होगा कि इस “निचले स्तर के काले इंसान” ने हम उच्च वर्ण जर्मनों को इस तरह धो डालने की हिम्मत कैसे की!

* इसी मुलाकात के दौरान हिटलर ने मेजर साब की हॉकी-स्टिक खरीदने की पेशकश भी की थी। हिटलर के इस आग्रह को भी मेजर साब ने ठुकरा दिया था।

* बर्लिन ओलंपिक में ही एक मैच के दौरान मेजर साब बिना जूते और जुराब पहने खेले थे –और नंगे पांव खेलने के बावज़ूद उन्होनें इस मैच में तीन गोल किए।

* बर्लिन ओलंपिक के दौरान जर्मन गोल-कीपर ने खूब खतरनाक खेल खेला। वह दूसरी टीम के खिलाड़ियों से टकरा कर उन्हें गिरा देता था। उसने यही मेजर साब के साथ किया और टकरा कर उनका एक दांत तोड़ दिया। इस पर मेजर साब ने अपनी टीम के खिलाड़ियों से कहा कि हम जर्मन टीम को सबक सिखाएँगे। मेजर साब के साथ भारत की टीम इतनी अधिक सशक्त थी कि भारत के खिलाड़ी बार-बार गेंद को जर्मन पाले में ले जाते थे और आसानी से गोल करने की स्थिति में आकर भी बिना गोल किए गेंद लेकर अपने पाले में लौट आते थे। उस मैच में ऐसा लग रहा था जैसे भारत की ग्यारह बिल्लियाँ जर्मन चूहों को खाने से पहले उनके साथ खिलवाड़ कर रही हों! इससे बड़ा अपमान जर्मन टीम का शायद ही कभी हुआ हो।

* क्रिकेट के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी डॉन बैडमैन ने कहा था कि मेजर ध्यान चंद तो गोल ऐसे करते हैं जैसे हम क्रिकेट में रन बनाते हैं!

* ऑस्ट्रिया के वियेना में रहने वालों ने शहर में मेजर साब का एक बुत लगाया था जिसमें मेजर साब के चार हाथ दिखाए गए थे और सभी में हॉकी-स्टिक थी। गेंद पर मेजर साब के अद्भुत नियत्रंण के प्रति यह एक अद्भुत सम्मान-प्रदर्शन था।

* मेजर ध्यान चंद ने 1000 से भी अधिक गोल किए जिसमें से 400 से अधिक गोल अंतर्राष्ट्रीय मैचों में किए गए। उन्होनें लगातार तीन ओलंपिक खेलों में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया –इन तीन आयोजनों में हुए भारत 12 मैचों के दौरान मेजर साब ने 33 गोल किए।

* मेजर साब की आत्मकथा तक का नाम “गोल” है!

* हॉलैंड में मेजर ध्यान चंद की हॉकी-स्टिक को केवल इसलिए तोड़कर देखा गया था क्योंकि लोगों को शक था कि उनकी हॉकी में चुम्बक जैसी कोई चीज़ है जो गेंद को चिपकाए रखती है।

* मेजर ध्यान चंद 1948 में हॉकी से रिटायर हुए। उनका जन्मदिन, 29 अगस्त, भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है –इसी दिन अर्जुन पुरस्कार, द्रोणाचार्य पुरस्कार और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार दिए जाते हैं। खेलों में भारत के सर्वोच्च लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार को भी ध्यान चंद पुरस्कार कहा जाता है।

हॉकी में मेजर ध्यान चंद की तुलना किसी से नहीं की जाती –ठीक उसी तरह जैसे फ़ुटबॉल में पेले की तुलना किसी से नहीं की जाती। लेकिन भारत के लोगों में स्मरण शक्ति और कृतज्ञता का भाव काफ़ी कमज़ोर है। आज विराट कोहली और रोहित शर्मा रन बना रहे हैं तो आज उन्हें क्रिकेट का अगला भगवान कहा जा रहा है। लेकिन भारत की जनता अच्छे खिलाड़ियों का क्या हश्र करती है इसका एक ताज़ा उदाहरण तो वीरेन्द्र सहवाग ही है। आज किसी को सहवाग की याद नहीं आती जबकि कुछ समय पहले तक स्टेडियम “सहवाग सहवाग सहवाग” के नारों से गूंजता था। जब क्रिकेट खिलाड़ियों का ही ऐसा हश्र होता है तो हॉकी के जादूगर को कौन याद रखेगा? मेजर साब के संदर्भ में महादेवी की लिखी पंक्तियाँ मन में आ रही हैं:

विश्व में, हे पुष्प!, तू सबके हृदय भाता रहा

दान कर सर्वस्व फिर भी हाय हर्षाता रहा

जब न तेरी ही दशा पर दुःख हुआ संसार को

कौन रोएगा सुमन हमसे मनुज निस्सार को

ऐसा नहीं है कि भारत की आम जनता में ही कृतज्ञता की कमी है। राजनेता तो आम जनता से भी आगे हैं। भारत रत्न पर स्वतंत्रता सेनानियों का पहला अधिकार बनता है –क्योंकि उनके बिना न तो भारत होता और न ही भारत रत्न। सो नेहरु, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी इत्यादि स्वतंत्रता सेनानी इस पुरस्कार के अधिकारी हैं। महात्मा गांधी को भी यह पुरस्कार मिलना चाहिए। लेकिन इंदिरा गांधी और राजीव गांधी किस तरह भारत रत्न बने यह मेरी समझ में नहीं आता। और अब किस कारण अटल बिहारी वाजपेयी के लिए आवाज़ उठ रही है -यह भी समझ नहीं आता। ऐसे ही चलता रहा तो भारत का हर प्रधानमंत्री देर-सवेर भारत रत्न मात्र इसलिए हांसिल कर लेगा कि वह प्रधानमंत्री रह चुका है। लता, सुब्बालक्ष्मी, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, टाटा, विश्वेश्वरैया, मदर टेरेसा, विनोबा भावे, एम.जी.आर., सत्यजित राय, अमृत्य सेन इत्यादि अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ रहे –सो इन्हें भी यह पुरस्कार मिलना जायज है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या मेजर ध्यान चंद अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ नहीं थे?

एक बात और… भारत रत्न कोई मूंगफली या रेवड़ी नहीं है कि किसी को भी दे दिया जाए। भारत रत्न देने के लिए एक कमेटी का गठन होना चाहिए और इस कमेटी के सदस्य वर्ष में एक बार टी.वी. पर आकर उन नामों के पक्ष में तर्क दें जिन्हें वे भारत रत्न देना चाहते हैं। इससे कम-से-कम जनता को कुछ तो जानकारी मिलेगी कि किसने किसी को भारत रत्न देने में क्या रोल निभाया है। नोबेल पुरस्कार मिलने पर या अपने क्षेत्र में पूरे विश्व में अव्वल होने पर भारत रत्न मिलना ही चाहिए।

सचिन तेंदुलकर को मेजर ध्यान चंद के ऊपर वरीयता देकर सरकार ने मेजर साब का अपमान किया है। यह ठीक उसी तरह है जैसे सरकार ने मेजर साब को झिड़कते हुए कह दिया हो कि “ठीक है, ठीक है, चुपचाप बैठे रहिए, आपको भी दे देंगे”… क्रिकेट के लिए पागल देश में क्रिकेट का भविष्य सुरक्षित है लेकिन राष्ट्रीय खेल होने का “आधिकारिक तमगा” लगा होने के बावज़ूद हॉकी मर रही है। मेजर ध्यान चंद को इस पुरस्कार का मिलना हॉकी के लिए भी अच्छा साबित होता।

एक बात यह भी मन में आती है कि क्या सचिन और प्रो. सी.एन.आर. राव के साथ-साथ मेजर ध्यान चंद को भी यह पुरस्कार नहीं दिया जा सकता था? इससे यह तो ज़रूर लग सकता था कि जैसे भारत रत्न थोक के भाव दिया जा रहा हो -लेकिन जो लोग इस पुरस्कार पर अपना अधिकार सिद्ध कर चुके हैं उन्हें लटकाने और तरसाने का क्या औचित्य है? मैरी कोम और विश्वनाथन आनंद कई साल तक लगातार और बार-बार विश्व चैम्पियन रहे हैं -उनका इस पुरस्कार पर अधिकार बनता है -फिर उन्हें यह पुरस्कार क्यों नहीं दिया जाए? और अगर नहीं दे सकते तो खिलाड़ियों को भारत रत्न देने की ज़रूरत ही क्या है? खेल रत्न पुरस्कार को ही भारत रत्न के बराबर कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में यदि सचिन को भी भारत रत्न नहीं दिया जाए तो क्रिकेट के प्रति पक्षपात का संदेह भी स्वत: समाप्त हो जाएगा।

फ़िलहाल प्रश्न फिर से वही है कि क्या मेजर ध्यान चंद, मैरी कोम और विश्वनाथन आनंद जैसे दिग्गज सचिन से कमतर हैं? खेल प्रतिभा में तो कतई कमतर नहीं हैं लेकिन हाँ चमक-दमक में ये दिग्गज सचिन से ज़रूर कम हैं। हालांकि यह ध्यान देने योग्य बात है कि सचिन को उनकी अतिरिक्त चमक-दमक पैसे और क्रिकेट के प्रति हमारे जुनून की देन है। इस अतिरिक्त चमक-दमक में सचिन की प्रतिभा का कोई हाथ नहीं है। एक तरह से देखा जाए तो सचिन को मेजर ध्यान चंद के ऊपर वरीयता दिलवाने में दोष हमारा भी है। हम ही क्रिकेट के पीछे ऐसे पागल हो चुके हैं कि हमें अब भगवान भी क्रिकेट से ही मिलने लगे हैं। अन्य खेलों का अस्तित्व हमारे लिए न के बराबर है।

चलिए, सब कुछ कह-सुन लिया है; और फ़िलहाल तो इसी घिसे-पिटे वाक्य से दिल बहलाना पड़ेगा कि “कुछ लोग सम्मानों से ऊपर होते हैं”… मेजर ध्यान चंद उन्हीं लोगों में से एक हैं।
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