Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
दोस्तों छोटी बहर पर मेरी पहली
कोशिश आप सब की नज़र-
रातें प्यार की मनचली है
बस बदनाम ये तिरगी है
लाचारी बेबसी है हर पल
कितनी आम ये जिन्दगी है
काला काज हुआ असिम मन
कैसी आज की गन्दगी है
भारी भीड़ लगी है हर पल
इतनी काहे की तिश्नगी है
उस शह का हथियार है वो
जिसकी कायल रोशनी है
मै हूँ ना से क्या है ज्यादा
जीस्त जाने कहाँ चली है
अपना काम निकाल ले बस
विधी हर ओर अभी यही है
कांटा आज बना है रौनक
कितनी ये मनहूस घड़ी है
दीपक खत्री 'रौनक'
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