Re: कुतुबनुमा
विरोध का मतलब हिंसा तो नहीं
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की 31 अगस्त 1995 को दिन-दहाड़े हत्या के मामले में मौत की सजा का सामना कर रहे बलवंतसिंह राजोआना पर दया करने के लिए पंजाब की मौजूदा सरकार ने जिस तरह का अभियान छेड़ा उसकी उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई कड़ी निंदा ने यह तो साबित कर ही दिया है कि अपने राजनीतिक हित के लिए सत्तारूढ़ सरकार ने राज्य के हितों को ही मानो तिलांजली दे दी थी। यह तो अच्छा रहा कि केन्द्र सरकार ने समय रहते पंजाब में बिगड़ती कानून व्यवस्था की दशा को देखते हुए राजोआना की फांसी पर रोक लगा दी, वरना पंजाब में हिंसा और भी उग्र रूप धारण कर सकती थी, जिसे संभालना राज्य सरकार के लिए बेहद मुश्किल हो जाता क्योंकि वह एक तरह से सरकार प्रायोजित ही थी। जहां तक फांसी की सजा का सवाल है,हो सकता है इससे व्यक्ति के मूल मानवाधिकार का घोर हनन होता हो। यह एक बहस का विषय हो सकता है लेकिन इसके मायने यह तो नहीं कि कानून को ही अपने हाथ में ले लिया जाए और वो भी सरकार के समर्थन से? दुनिया के 96 देशों में फांसी की सजा पर रोक है। संविधान निर्माता बी.आर.अंबेडकर ने भी संविधान सभा में मृत्युदंड हटाने का समर्थन किया था। यह भी हो सकता है कि मौत की सजा मानव धर्म का अपमान हो लेकिन इसका विरोध करने के और भी शांतिपूर्ण तरीके हो सकते हैं। यही कारण है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जी.एस. सिंघवी और न्यायाधीश एस.जे. मुखोपाध्याय की पीठ को गुरूवार को कहना पड़ा कि एक व्यक्ति को हत्या के आरोप में दोषी ठहराया गया है। मुख्यमंत्री की दिनदहाड़े हत्या की गई थी। यह अपने आप में विरला उदाहरण हैं जहां आतंकी कृत्य के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को राजनीतिक समर्थन मिला है। दोनो न्यायाधीशों की पीठ ने राजोआना की फांसी की सजा के विरोध में सिख संगठनों के आह्वान पर पंजाब में बंद और उस दौरान हुई हिंसक घटनाओं पर चिंता जताई और इसे राजनीतिक ड्रामा करार दिया। अब देखना तो यह है कि उच्चतम न्यायालय की इस अपूर्व टिप्पणी से सत्तारूढ़ सरकार क्या सबक सीखेगी क्योंकि यह मुद्दा भले ही कुछ दिनो के लिए टल गया है लेकिन पंजाब की मौजूदा सरकार लगता है इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बना चुकी है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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