मिर्ज़ा ग़ालिब की विनोद प्रियता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ालिब के जीवन से सम्बंधित निम्नलिखित अंश ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली द्वारा 1897 में लिखी गई मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी “यादगार-ए-ग़ालिब” से लिया गया है. ग़ालिब की सर्वप्रथम साहित्यिक जीवनी लिखने का श्रेय हाली को ही जाता है. इसके बाद ही, ग़ालिब की मृत्यु के लगभग तीन दशक बाद, ग़ालिब के साहित्य का बाकायदा मूल्यांकन और समालोचना शुरू हुयी. हाली स्वयं एक शायर और उच्च कोटि के आलोचक तो थे ही, ग़ालिब के शागिर्द भी थे.
ग़ालिब अपनी उर्दू और फारसी शायरी के लिए तो विख्यात हैं ही, साथ ही अपने मित्रों तथा आत्मीयों को लिखे अपने सैकड़ों पत्रों के लिए भी जाने जाते हैं जो अनौपचारिकता और फक्कड़पन की एक अलग ही दुनिया की रचना करते हैं. आप देखेंगे कि ग़ालिब ने अपने पत्रों में उस समय प्रचलित सामंतवादी युग की दिखावटी विनम्रता का त्याग करते हुए एक ऐसी सरल, दोस्ताना और संवाद की सुखद अनुभूति जगाने वाली शैली को अपनाया जो उर्दू गद्य में अब तक उपलब्ध नहीं था. बाद के साहित्यकारों को ग़ालिब की इस नयी शैली ने बहुत प्रभावित किया.
ग़ालिब के समय में ही ग़ालिब की विनोदप्रियता के चर्चे होते थे. हाली ने अपने ख़ास अंदाज़ में ग़ालिब के इस पक्ष का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है जिसकी बानगी आपको निम्नलिखित प्रसंगों के माध्यम से भलीभांति हो जायेगी.
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