Re: मंटो ने कहा था
मंटो / लहू और लोहे का इतिहास
14 अगस्त 1947 का दिन मेरे सामने बम्बई में मनाया गया. पाकिस्तान और भारत दोनों देश स्वतंत्र घोषित किये गए थे. लोग बहुत प्रसन्न थे, मगर क़त्ल और आग की वारदातें बाकायदा जारी थीं.स्वतंत्र भारत की जय के साथ साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे भी लगते थे. काग्रेस के तिरंगे के साथ इस्लामी परचम भी लहराता था.पंडित जवाहर लाल नेहरु और कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना – दोनों के नारे बाजारों में गूंजते थे. समझ में नहीं आता था कि भारत अपनी मातृभूमि है या पाकिस्तान अपना वतन. और वह लहू किसका है, जो हर रोज इतनी बेदर्दी से बहाया जा रहा है. वो हड्डियां कहाँ जलाई जायेंगी या दफ़न की जायेंगी, जिन पर से मज़हब और धर्म का गोश्त चीलें और गिद्ध नोच नोच कर खा गए थे ?
हिन्दू और मुसलमान धड़ाधड़ मर रहे थे. कैसे मर रहे थे, क्यों मर रहे थे .. इन प्रश्नों के उत्तर भी भिन्न भिन्न थे .. भारतीय उत्तर, पाकिस्तानी जवाब, अंग्रेजी आंसर हर सवाल का जवाब मौजूद था, मगर इस जवाब में वास्तविकता तलाश करने का सवाल पैदा हो उसका कोई उत्तर न मिलता. कोई कहता इसे ग़दर के खंडहर में ढूंढो, कोई कहता, नहीं, यह ईस्ट इंडिया कम्पनी की हुकूमत में मिलेगा. कोई और पीछे हट कर उसे मुगलिया खानदान के इतिहास में टटोलने के लिए कहता. सब पीछे ही पीछे हटते जाते थे और पेशेवर कातिल और लुटेरे बराबर आगे बढ़ते जा रहे थे और लहू और लोहे का ऐसा इतिहास लिख रहे थे, जिसका उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं मिलता.
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