Re: ~!!आनन्दमठ!!~
सिपाही फिर निश्चिंत हो कोलाहल मचाते हुए आगे बढ़े। गाड़ी का पहिया घड़-घड़ शब्द करता हुआ घूमने लगा। भवानंद ने अतीव धीमे स्वर में, ताकि महेंद्र ही सुन सकें, कहा-महेंद्रसिंह! मैं तुम्हें पहचानता हूं। तुम्हारी सहायता करने के लिए ही यहां आया हूं। मैं कौन हूं यह भी तुम्हें सुनने की जरूरत नहीं। मैं जो कहता हूं, सावधान होकर वही करो! तुम अपने हाथ के बंधन गाड़ी के पहिये के ऊपर रखो।
महेंद्र विस्मित हुए, फिर भी उन्होंने बिना कहे-सुने भवानंद के मतानुसार कार्य किया- अंधकार में गाड़ी के चक्कों की तरफ जरा खिसककर उन्होंने अपने हाथ के बंधनों को पहिये के ऊपर लगाया। थोड़ी ही देर में उनके हाथ के बंधन कटकर खुल गए। इस तरह बंधन से मुक्त होकर वे चुपचाप गाड़ी पर लेट रहे। भवानंद ने भी उसी तरह अपने को बंधनों से मुक्त किया। दोनों ही चुपचाप लेटे रहे।
महेंद्र ने देखा दस्यु गाते-गाते रोने लगा। तब महेंद्र ने विस्मय से पूछा- तुमलोग कौन हो?
भवानंद ने उत्तर दिया -हमलोग संतान हैं।
महेंद्र -संतान क्या? किसकी संतान हैं?
भवानंद -माता की संतान!
महेंद्र -ठीक ! तो क्या संतान लोग चोरी-डकैती करके मां की पूजा करते हैं? यह कैसी मातृभक्ति?
भवानंद -हम लोग चोरी-डकैती नहीं करते….
महेंद्र -अभी तो गाड़ी लूटी है…?
भवानंद -यह क्या चोरी-डकैती है! किसके रुपये लुटे हैं?
महेंद्र -क्यों ? राजा के !
भवानंद -राजा के! वह क्यों इन रुपयों को लेगा- इन रुपयों पर उसका क्या अधिकार है?
महेंद्र -राजा का राज-भाग।
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