अनेक में एक के दर्शन
अनेक में एक के दर्शन
धर्ममें ईश्वर और मनुष्य दोनों के प्रतिबिम्ब मिलते हैं। चूंकि धर्म कोई स्वीकार्य सिद्धान्त या अनुगम्य विश्वास नहीं है, वरन यह एक जीवन है जिसे जिया जा सकता है, इसलिये इसमें ईश्वर-प्राप्तिके विविध मार्गों को वैधता प्राप्त है और उनके लिये इसमें पूरी गुंजाइश रखी गयी है। ईश्वर की अभिव्यक्ति विविध रूपोंमें हो सकती है, परन्तु वे सभी रूप ईश्वर के ही कहे जायेंगे। जब हम राष्ट्रीय अभिमान, नस्ल या प्रजातिगत श्रेष्ठता, आस्था और धर्मके रूढ-जड़ नियमों और जातिगत या वर्गगत दर्पके कठोर आवरण में अपनी आत्माको बन्दी बना देते हैं, तब हम उसका गला घोंट देते हैं और उसका खुलकर सांस लेना मुश्किल कर देते हैं। उपनिषदों में स्पष्ट कहा है कि समिधा अलग-अलग प्रकारकी हो सकती है, परन्तु उससे फूटनेवाली ज्वाला का रूप एक-सा होता है। गायें कई रंगों की भले हों, पर उनके दूधका रंग श्वेत ही होता है। दूधकी भांति सत्य भी एक है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति गायोंके विभिन्न रंगोंकी भांति अलग-अलग रूपोंमें होती है।
‘गवाम् अनेकवर्णानां क्षीरस्यास्त्येकवर्णता।
क्षीरवत्
पश्यते ज्ञानं लिङ्क्षिनस्तु गवां यथा॥’
श्रीमद् भागवत में भी कहा गया है कि जैसे कई ज्ञानेन्द्रियां किसी वस्तु में अलग-अलग गुण देखती हैं, वैसे ही विभिन्न धर्मशास्त्रोंमें एक परमेश्वरके अनेक पक्षोंकी ओर संकेत करते हैं।
‘यथेन्द्रियैः पृथग् द्वारैः अर्थो बहु-गुणाश्रयः।
एको नाना ईयते तद्वत् भगवान् शास्त्र-वर्त्मभिः॥’
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 23-01-2016 at 07:30 PM.
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