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Old 11-09-2013, 07:20 PM   #13
jai_bhardwaj
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Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

सिगरेट सुलगकर आदित्य का हाथ जला देती है और खुद को छुड़ा कर, फर्श पर लेट जाती है । आज बरसों बाद आदित्य की आँख भर आयी क्योंकि वो दुखी थी । आस-पास चुप्पी पसर गयी । जान पड़ता था कि बस साँसों के चलने की आवाज़ आ रही हो । ये ख़ामोशी उसे आखिरी की मुलाकात पर पहुँचा देती है । तब भी उसके पास कहने को कुछ शेष नहीं था और आज भी उसे कुछ सूझ नहीं रहा था ।

-"तो क्या पढ़ाती हो बच्चों को ?" आदित्य विषय बदलने के उद्देश्य से कहता है ।

-अंग्रेजी

-तो बच्चों को अंग्रेज बनाया जा रहा है ।

प्रत्युतर में निशा के गालों पर गड्ढे उभर आते हैं ।

फिर कुछ क्षण के लिए सन्नाटा पसर जाता है । दोनों ही अपने हिस्से की ख़ामोशी ओढ़ लेते हैं ।

"शादी क्यों नहीं कर लेते ? कब तक यूँ ही भटकते रहोगे ? और फिर माँ को भी तो अपनी बहू चाहिए । उनसे उनका हक क्यों छीनते हो " निशा चुप्पी तोडती है । आदित्य सिगरेट जलाता हुआ उठ खड़ा होता है । एक कश लेता है, धुआँ छोड़ता है और कहता है "जानती हो निशा, बचपन में माँ ने एक पक्षी की कहानी सुनाई थी । जो बारिश की पहली बूँद की प्रतीक्षा करता है और यदि वह छूट गयी तो वह बाकी की बूँदों के बारे में सोचता भी नहीं । और वैसे भी किसी ने कहा है, हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ।" और इसके साथ ही अगला कश और फिर धुआँ उड़ने लगता है ।

-"वैसे चाँद मियाँ अब भी ड्यूटी पर हैं । देखो, अभी तक रौशन हैं ।" आदित्य चाँद की और देख कर कहता है ।

-"शायद आज पूरे चाँद की रात है ।" निशा स्वंय को ठीक से ढकते हुए कहती है ।

-तुम्हें चाँदनी रात बहुत पसंद थी न ।

-तब जानती नहीं थी कि अमावस्या भी आती है । और कभी-कभी बहुत लम्बी, स्याह काली ।

यह बात आदित्य के भीतर एक तीखी कसक छोड़ जाती है । वह स्वंय को संभालते हुए, प्लेटफॉर्म के किनारे पहुँच शौल हटाकर चुभती हवा को स्पर्श करता है । और कपकपाते हुए घडी देखता है । "अभी दो घंटे में सुबह हो जायेगी । कितना दूर है तुम्हारा हॉस्टल ?" पूँछता हुआ बैंच पर आ बैठता है । "यही कोई चार-पाँच किलोमीटर दूर" कहती हुई निशा पुनः खामोश हो जाती है ।

दोनों के मध्य लम्बी चुप्पी के बाद कब आँखें सो जाती हैं, एहसास ही नहीं होता । एकाएक आदित्य की आँखें खुलती हैं । वह घडी की ओर देखता है । "अरे छह बज गए । चलो उठो चलते हैं अब ।" आदित्य, निशा को जगाते हुए कहता है । दोनों स्टेशन के बाहर निकल आते हैं । सामने ही बस दिखाई देती है । निशा बस में चढ़ने को होती है, तभी आदित्य ताँगे की ओर इशारा करके कहता है "चलो उसमें चलते हैं" । दोनों ताँगे वाले के पास पहुँचते हैं । वह बताता है कि पहले स्कूल पड़ेगा, उसके बाद सरकारी दफ्तर । आदित्य सामान को रखकर, निशा की चढ़ने में मदद करता है । जब तीनों उस पर सवार हो जाते हैं तो ताँगा धीमे-धीमे आगे बढ़ने लगता है ।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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