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Old 01-07-2013, 09:02 AM   #6
dipu
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Default Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )

4 अप्रैल 1858 की रात को रानी ने दामोदर राव को पीठ से बांधा तथा घोडे पर सवार होकर भांडेरी फाटक पर पहुँच गई। रानी के निकलने के लिए फाटक खोल दिया गया तथा कोरियों ने फाटक तुरंत बंद कर दिया। इस तरह रानी भांडेरी गेट से सुरक्षित बाहर निकल गई। झलकारी ने देखा कि रानी सुरक्षित निकल गई है तो उसने फिर धुआंधार गोलाबारी आरंभ कर दी ताकि अंग्रेज टुकडी रानी का पीछा ना कर सके तथा रानी सुरक्षित कालपी पहुँच जाए। उसी दिन यानि 4 अप्रैल 1858 को झलकारी बाई ने रानी की वेशभूषा पहनी तथा शस्त्रों के साथ घोडे पर चढकर लडने लगी। वह हूबहू रानी लक्ष्मीबाई जैसी लग रही थी। अब अंग्रेज झलकारी को ही रानी समझकर उससे उलझे हुए थे। तथा झलकारी भी उन्हें उलझाए रखना चाहती थी। किले पर अंग्रेजों का बढता अधिपत्य देखकर भी झलकारी बाई ने साहस नही डिगाया और अपना रौद्र रुप धारण किए अंग्रेजी सेना में मार काट मचा दी। कहते है झलकारी बाई ने 12 घंटे तक अनवरत युद्ध किया और अंग्रेज यही समझते रहे कि रानी ही उनसे युद्ध कर रही है। लड़ते-लड़ते जब कई घंटे बीत गए औऱ झलकारी को लगा कि अब रानी जरुर कहीं किसी सुरक्षित जगह पहुँच गई होगी,इसलिए झलकारी बाई किले में अंग्रेजों द्वारा की जा रही भंयकर हिंसा और रक्तपात से किलेवासियों को बचाने के लिए वह किले से बाहर निकल आई। अंग्रेजों ने सोचा रानी बाहर जा रही है। वे भी उसके पीछे- पीछे भागे। अंग्रेजों से लड़ते लड़ते आखिरकार झलकारी बाई पकड़ ली गई। अंग्रेजी कैम्प में खुशिया मनाई जाने लगी। अंग्रेजी राज का सबसे बड़ा कॉटा उनके चंगुल मे आ गया। उन्हें सचमुच लगा कि रानी उनके कब्जे में आ गई है। वीरांगना झलकारी बाई को गिरफ्तार करने के बाद उसे जरनल ह्यूरोज के सामने पेश किया गया। जरनल ह्यूरोज ने उसे देखा और कहा- “कितनी सुंदर यद्यपि श्यामल औऱ भयानक”। रानी को कोई भी अंग्रेज अफसर नही पहचानता था। अंग्रेजों ने रानी को पहचानने के लिए फिर उसी गद्दार दुल्हाजू राव को बुलवाया। दीवान दुल्हाजू राव झलकारी बाई को देखकर हैरत में पड़ गया और चिल्लाकर बोला “अरे यह तो कोरी लड़की झलकारी है रानी लक्ष्मीबाई नही”। दुल्हाजू को सामने पाकर झलकारी गुस्से में बोली – “आस्तीन के साँप” ।झलकारी बाई ने जंजीरों मे जकड़े-जकड़े ही दीवान दुल्हाजू पर गोली चला दी परन्तु गोली एक गोरे सैनिक को लग गई। गोली से वह अंग्रेज सैनिक मर गया पर दुल्हाजू राव बच गया। झलकारी फिर गरज कर बोली –अरे पापी तुने ठाकुर होकर यह का करो? तू पैदा होते ही क्यों नही मर गया? तूने महारानी लक्ष्मीबाई से गद्दारी की है। तभी जरनल ह्यूरोज झलकारी बाई पर गरज उठा – “तूने मुझे धोखा दिया तू रानी लक्ष्मीबाई नही हो, तुम झलकारी कोरिन हो । तुमने मेरे सैनिक को गोली मारी, मैं तुम्हे गोली मारुंगा”। झलकारी बाई चिल्लाकर बोली- “मार दे गोली, मैं मरने से कब डरती झलकारी का वापिस जबाव पाकर ह्यूरोज गुस्से में तमतमा उठा और अंतत उस क्रूर अंग्रेज ने उसे गोलियों से छलनी कर दिया”। लेकिन बाद में जरनल ह्यूरोज ने झलकारी बाई की हिम्मत बहादुरी से प्रभावित होकर कहा था- "यदि भारत की १% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा"।

रानी लक्ष्मीबाई की सुरक्षित बचाने में वफादारी का सबूत पेश करने वाली दलित वीरांगना झलकारी बाई देश के हित में कुर्बान हो गई। अपनी मातृभूमि की रक्षा, वफादारी तथा भारत की आजादी के लिए झलकारीबाई ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी तथा शहीद हो गई। झलकारी बाई की मृ्त्यु किस तारीख को हुई इसके बारे में अलग-अलग जानकारियां मिलती है। कुछ लोग झलकारी बाई के शहीद होने की तिथि 4 अप्रैल मानते है तथा कुछ लोग 5 अप्रैल मानते है। अखिल भारतीय युवा कोहली राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ.नरेशचंद्र कोली के अनुसार 4 अप्रैल 1857 को झलकारी बाई ने वीरगति प्राप्त की थी।

उन्हें वीरगति कैसे प्राप्त हुई इस संदर्भ में भी कई कहानियां प्रचलित है। किसी का मानना है कि उनको अंग्रेजो द्वारा फांसी की सजा दी गई और कुछ का मानना है कि उनका शेष जीवन अंग्रेजो की कैद में बीता। यह भी कहानी पढने को मिलती है कि पकडे़ जाने पर जब झलकारी बाई को न्यायालय में पेश किया गया। तब अंग्रेज न्यायाधीश ने झलकारी बाई को उम्रकैद की सजा सुनाई तो उसने भरी सभा में अंग्रेजी न्याय की खिल्ली उड़ाते हुए उन्हें तुरंत झाँसी से लौट जाने का आदेश दिया। चिढ़े हुए अंग्रेज अफसरों ने बौखलाकर तुरंत उस पर फौजी मानहानि तथा बगावत का आरोप सिद्ध किया और देशभक्त वीरांगना झलकारीबाई को तोप के मुँह से बाँधकर उड़वा दिया गया। एक अन्य जगह झलकारी बाई को अंग्रेजों द्वारा तोप से उडा कर मार डालने का भी वर्णन मिलता है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से छपी लघु पुस्तक झलकारी बाई की लेखिका अनसूया अनु ने लिखा है कि “झलकारी अंग्रेजी सेना के हाथ पड़ तो गई लेकिन वह उनके हाथ मरना नही चाहती थी। उसने अपनी सखी वीरबाला से अपने सीने में कटार उतार देने को कहा। सखी वीरबाला हिचकिचाई, लेकिन झलकारी के आग्रह ने उन्हे मजबूर कर दिया। वीरबाला के हाथों अपनी जीवन लीला समाप्त कर वह सदा के लिए सो गई”। एक अन्य मत, प्रसिद्ध लेखक वृंदावन लाल वर्मा का है जिन्होंने पहली बार झलकारी बाई का उल्लेख अपने उपन्यास झांसी की रानी में किया था। उनके अनुसार रानी और झलकारी बाई के संभ्रम का खुलासा होने के बाद ह्यूरोज ने झलकारी बाई को मुक्त कर दिया था। उनके अनुसार झलकारी बाई का देहांत एक लंबी उम्र जीने के बाद हुआ था। लेखक श्रीकृष्ण सरल ने भी अपनी पुस्तक Indian revolutionaries: a comprehensive study, 1757-1961, Volume 1 पुस्तक में उनकी मृत्यु लडाई के दौरान हुई ही बताया है। कोरी जाति के लोगों के साथ-साथ दलित साहित्यकारों का भी मानना है कि झलकारी बाई अंग्रजों के खिलाफ लडते-लडते शहीद हो गई थी। प्रसिद्ध दलित साहित्यकार राजमल ‘राज’( हमारे दलित गौरव, लेखक राजमल राज प्रकाशक दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली) और दलित दस्तावेज के लेखक एम. आर. विद्रोही (सम्यक प्रकाशन दिल्ली) ने भी उनको युद्ध में ही लडते-लडते शहीद होना बताया है।

जन्म और वीरगति की कहानियों से परे झलकारी बाई के शौर्य,पराक्रम,हिम्मत,सूझबूझ की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार के पोस्ट एवं टेलिग्राफ विभाग ने २२ जुलाई २००१ में वीरांगना झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर( राजस्थान)में निर्माणाधीन है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ मे एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।
कडवी सच्चाई है जिससे मुँह नही छिपाया जा सकता कि मुख्यधारा के इतिहासकारों द्वारा, झलकारी बाई के योगदान को बहुत विस्तार नहीं दिया गया है, लेकिन आधुनिक स्थानीय लेखकों ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे से उभारा है। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल और प्रसिद्ध दलित साहित्यकार श्री माता प्रसाद ने झलकारी बाई की जीवनी की रचना की है। प्रसिद्ध जनकवि बिहारी लाल हरित ने वीरांगना झलकारी बाई पर एक प्रबंध काव्य लिखा है। इसके अलावा चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है। प्रसिद्ध दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय ने भी उनकी जीवनी को पुस्तकाकार दिया है। भवानी शंकर विषारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है। मुंबई के डायरेक्टर एस.एल बाल्मीकि ने भारत सरकार के लिए डाक्यूमेंट्री तैयार करते हुए झलकारी बाई के प्रति बरती गई ऐतिहासिक उपेक्षा को बेहद पैने और सचेत अंदाज में उठाया है। 25 मिनट की इस डाक्यूमेंट्री में उन्होंने झलकारी बाई की वीरगाथा, रानी के साथ युद्ध में उनकी भूमिका सहित उनके जीवन के अन्य पहलुओं पर भी चर्चा की है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गु्प्त ने भी झलकारी की बहादुरी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा है-
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।

वीरागंना झलकारी बाई ने भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होकर समाज को बता दिया कि आजादी, बहादुरी, कर्तव्यपरायणता, सूझबूझ, विवेकशीलता, स्वाभिमान,साहस और हिम्मत पर किसी एक कौम का हक ना होकर बल्कि सभी कौमों का एक समान हक होता है। झलकारी बाई में जैसा देश प्रेम था और जैसी उसने अपनी दोस्ती निभाई, वैसे निभाने वाले इस दुनिया में विरले ही होते है क्योंकि ना तो झांसी और ना ही उसके महल पर उनका अधिकार था ना ही वे झांसी की रानी थी, ना ही कभी झांसी की रानी बन सकती थी इसलिए झांसी की इस वीरांगना का नाम निस्वार्थ भाव से देशप्रेम के लिए बलिदान होने वाले शहीदों के साथ स्वर्ण अक्षरो में लिखा जायेगा। भारतीय इतिहास में उनका नाम सदा रानी झांसी के साथ-साथ लिया जाएगा।


अनिता भारती, जानीमानी लेखिका और इतिहास वक्ता
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