Re: विजेता
त्रिलोचन शास्त्री, चेयरमैन, एडीआर तथा प्रोफेसर आईआईएम, बेंगलुरू
सत्तारूढ़ दल बदला है, लोकसभा में बैठने वाले सांसद नहीं
हम ऐतिहासिक चुनाव के साक्षी बने हैं। 1984 के बाद से पहली बार एक अकेली पार्टी जीतकर सत्ता में आई है। लोगों ने भाजपा के पक्ष में निर्णायक फैसला दिया है और कांग्रेस को खारिज कर दिया है। मतदान का प्रतिशत 1984 के बाद से सर्वाधिक रहा था। अगले पांच साल बहुत रोचक होंगे। इस जीत के प्रभावों के बारे में काफी कुछ लिखा जाएगा। आइए इस चुनाव व जीत के एक पहलू की ओर देखें : हमने किस तरह के लोगों को चुना है? इस चुनाव के 8150 प्रत्याशियों का ब्योरा देखें, जिसमें 3182 प्रत्याशी निर्दलीय थे, तो हमें कई रोचक ट्रेंड देखने को मिलते हैं।
इस बार सर्वाधिक प्रत्याशी चुनावी मैदान में थे-प्रति चुनाव क्षेत्र 15। 2009 की तुलना में 14 फीसदी ज्यादा। करीब 480 दलों ने चुनाव लड़ा। पिछले बार 350 दल मैदान में थे। दुनिया के किसी देश में इतने दल चुनाव नहीं लड़ते। मौजूदा प्रणाली में विजेता को 50 फीसदी वोट हासिल करने की अनिवार्यता नहीं होती। 30 फीसदी वोट भी मिल जाए तो कोई पार्टी बहुमत हासिल कर सकती है। मतलब 50 फीसदी से ज्यादा सीटें। क्या इसका मतलब यह है कि शेष 70 फीसदी लोग प्रतिनिधित्व के बिना ही रह जाते हैं?
इन 8150 प्लस प्रत्याशियों में से 17 फीसदी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यह 2009 से 15 फीसदी ज्यादा है। गंभीर मामलों वाले प्रत्याशी 8 फीसदी से बढ़कर 11 फीसदी हो गए हैं। लेकिन जब हम प्रमुख दलों को देखते हैं तो हालत और भी खराब नजर आती है। भाजपा में 33 और कांग्रेस में 28 फीसदी प्रत्याशियों पर मामले दर्ज हैं। गंभीर मामलों के प्रत्याशी भाजपा में 21 तो कांग्रेस में 13 फीसदी रहे।
पैसे का दखल भी बढ़ा है। इस चुनाव में प्रत्याशी की औसत संपत्ति भाजपा के लिए 10.32 करोड़ रुपए तो कांग्रेस के लिए13.27 करोड़ रही। 2009 की तुलना में यह ज्यादा है। निजी स्तर पर कई प्रत्याशी स्वीकार करते हैं कि उन्होंने प्रचार पर 10 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए। सवाल यह है कि यदि घोषित संपत्ति इससे कम है तो प्रचार में पैसा कौन लगा रहा है? फिर यह 75 लाख की सीमा का 15 फीसदी से उल्लंघन भी है। कानूनी रूप से यह गलत है। क्या इस चुनाव में काले धन भूमिका निभाई है?
अपराध और धन का गठजोड़ भी रोचक है। भाजपा में 7.7 फीसदी ऐसे प्रत्याशी हैं जिन पर गंभीर मामले दर्ज हैं और उनके पास 5 करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति है। कांग्रेस में ऐसे 5.4 फीसदी प्रत्याशी हैं। 2009 में जहां 30 फीसदी सांसदों पर आपराधिक मामले और 14 फीसदी पर गंभीर मामले दर्ज थे। 2014 के आंकड़ों का गंभीर अध्ययन जरूरी है पर स्थिति इससे अलग नहीं होगी।
क्या संसद का मूलभूत चरित्र बदलेगा? यदि हम दोनों प्रमुख दलों के साथ जुड़ी मेगा कंपनियों को देखें तो अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों ने कई हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं। क्या संसद में बैठकर कानून बनाने वाले कानून तोड़ने वाले हो सकते हैं? कमजोर नैतिक मनोबल वाली लोकसभा को निहित स्वार्थी तत्व आसानी से अपने पक्ष में भुना सकते हैं। यह यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुआ है और इसका कोई कारण नहीं है ऐसा नई सरकार में नहीं होगा। सत्तारूढ़ दल तो बदला है, लेकिन लोकसभा में बैठने वाले नहीं बदले हैं।
हर दल के नीति-निर्धारक कहते हैं कि हम जब तक जीतते नहीं है, शासन में सुधार नहीं ला सकते। ये तो ‘छोटे’ समझौते हैं जो ‘जमीनी राजनीति’ में करने पड़ते हैं। पर यदि जिन लोगों ने चुनाव में पैसा लगाया है, वे इसका फायदा उठाने के लिए आतुर हों तो क्या बदलाव लोगों के पक्ष में हो सकता है?
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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