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Re: इधर-उधर से
देहली दरबार का जल्वा
(शायर / अकबर इलाहाबादी )
-- सन 1911 में दिल्ली दरबार के आयोजन का आँखों देखा हाल --
सर में शौक का सौदा देखा, देहली को हमने भी जा देखा
जो कुछ देखा अच्छा देखा, क्या बतलाएँ क्या क्या देखा
जमना जी के पाट को देखा, अच्छे सुथरे घाट को देखा
सबसे ऊंचे लाट को देखा, हज़रत ड्यूक कनाट को देखा
पलटन और रसाले देखे, गोरे देखे काले देखे
संगीनें और भाले देखे , बैंड बजाने वाले देखे
खेमों का इक जंगल देखा , इस जंगल में मंगल देखा
बढ़िया और दरंगल देखा, इज्ज़त ख्वाहों का दंगल देखा
सड़कें थी हर केम्प से जारी, पानी था हर पम्प से जारी
नूर की मौजें लैम्प से जारी, तेज़ी थी हर जम्प से जारी
डाली में नारंगी देखी, महफ़िल में सारंगी देखी
बेरंगी बारंगी देखी , दहर की रंगा रंगी देखी
अच्छे अच्छों को भटका देखा, भीड़ में खाते झटका देखा
मुंह को अगरचे लटका देखा, दिल दरबार से अटका देखा
हाथी देखे भारी भरकम, उनका चलना कम कम थम थम
ज़र्रीं झूले नूर का आलम,मीलों तक वह छम छम छम छम
पुर था पहलु ए मस्जिदे जा’मा, रोशनियाँ थीं हरसू ला’मा
कोई नहीं था किसी का सा’मा, सब के सब थे दैर के ता’मा
सुर्खी सड़क पर कुटती देखी, सांस भी भीड़ में घुटती देखी
आतिशबाजी छुटती देखी, लुत्फ़ की दौलत लुटती देखी
चौकी इक चौलिक्खी देखी, खूब ही चक्खी पक्खी देखी
हर सू न’आमत रखी देखी, शहद और दूध की मक्खी देखी
एक का हिस्सा मन ओ’ सलवा, एक का हिस्सा थोड़ा हलवा
एक का हिस्सा भीड़ और बलवा, मेरा हिस्सा दूर का जलवा.
ओजब्रिटिश राज का देखा, परतो तख़्त औ’ ताज का देखा
रंगे - ज़माना आज का देखा. रूख कर्ज़न महाराज का देखा
पहुंचे फांद के सात समंदर, तहत में उनके बीसों बंदर(गाह)
हिकमतो दानिश उनके अन्दर, अपनी जगह हर एक सिकंदर
हम तो उनके सैर तलब हैं, हम क्या ऐसे सब के सब हैं
उनके राज के उम्दा ढब हैं, सब सामाने ऐशो तरब हैं
एग्ज़ीबिशन की शान अनोखी, हर शय उम्दा हर शय चौखी
अक्लीदस की नापी जोखी, मन भर सोने की लागत सोखी
जश्ने अज़ीम इस साल हुआ है, शाही फोर्ट में बाल हुआ है
रौशन हर इक हॅाल हुआ है, किस्सा ए माजी हा’ल हुआ है
है मशहूर कूचा ए बरज़न , बाल में नाचें लेडी कर्ज़न
तायरे होश थे सब के परज़न, रश्क से देख रही थी हर ज़न
हॅाल में चमकीं आ के यकायक, ज़र्रीं थीं पौशाक झका झक
महव था उनका ओजे समा तक, चर्ख पे ज़हरा उनकी थी गाहक
गौर कास-ए-ओज फ़लक थी, इसमें कहाँ ये नोक पलक थी
इन्दर की महफ़िल की झलक थी, बज़्मे इशरत सुब्ह तलक थी
की है ये बंदिश ज़हने रसा ने, कोई माने ख्वाह न माने
सुनते हैं हम तो ये फ़साने, जिसने देखा हो वह जाने
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