Re: इधर-उधर से
ग़ज़ल नाकाम दिल में ख्वाब जगाने लगी हवा
इस घर में फिर चराग़ जलाने लगी हवा
अब दिल के आईने का खुदा ही भला करे
दीवार दूरियों की गिराने लगी हवा
पत्ता जब उसके साथ पहाड़ी पे आ गया
गहराई में धकेल के जाने लगी हवा
सूखा दरख्त धूप की ज़हरीली बर्छियां
सीने पे खा चुका तो सताने लगी हवा
आवाज़ थी तुम्हारी कि कदमों की चाप थी
कानों में जल तरंग बजाने लगी हवा
अपना बदन जब ठिठुरने लग गया ‘फिराक़’
उसके बदन की धूप चुराने लगी हवा
(शायर: फिराक़ जलालपुरी)
Last edited by rajnish manga; 02-12-2013 at 11:25 AM.
|