Re: इधर-उधर से
ग़ज़ल
दोष पे अपने बार उठाये फिरते हैं
हम कितने आज़ार उठाये फिरते हैं
प्रेम नगर के वासी काँटों के बन में
फूलों का अम्बार उठाये फिरते हैं
तन के उजले मन के काले हैं जो लोग
नफरत की दीवार उठाये फिरते हैं
दीन धरम के नाम पे कौमों के दुश्मन
दोधारी तलवार उठाये फिरते हैं
‘नूर’ मिले आँगन में वो तो रात गये
पायल की झंकार उठाये फिरते हैं
(नूर मुनीरी)
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