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Originally Posted by rajat vynar
पवित्रा जी अपने आक्षेप में कहती हैं- 'भगवान के मन में भी आम इन्सान की ही तरह पैसे का लालच हो..' इस सन्दर्भ में मेरा तर्क यह है कि क्या देवराज इन्द्र का सिंहासन उस समय हिलने नहीं लगता जब कोई जप-तप में लीन हो जाता है? देवराज इन्द्र का विचलित और चिन्तित होना क्या अपनी पदवी के प्रति उनके लालच को प्रदर्शित नहीं करता? पवित्रा जी अपने आक्षेप में आगे कहती हैं- 'जिन देवी को निरोगी काया प्राप्त करने हेतु पूजा जाता हो ,उन्हें ईबोला फैलाने का कोन्ट्रैक्ट मिले (जिससे लोग उन्हें पूज सकें)..' इनका यह आक्षेप ही सिरे से गलत है।उत्तर भारत में जब किसी को चेचक निकल आती है तो लोग कहते हैं- 'माता निकल आई हैं'। दक्षिण भारत में लोग कहते हैं- 'अम्मन का प्रकोप है'। अतएव यह सिद्ध हुआ कि शीतला देवी स्वयं इन विषाणु (virus) जन्य बीमारियों की जनक हैं और इन्हें निरोगी काया प्राप्त करने हेतु पूजा नहीं जाता, अपितु विषाणुजन्य बीमारियों को चंगा करने के उद्देश्य से पूजा जाता है। रही बात डायन की तो इसका स्पष्टीकरण रचना में ही लिखा है- ’यह तो हड़ताल होने की चिन्ता के कारण मेरा रूप डायन का बन गया है।'
पवित्रा जी, हमें आपकी बात पर पूरा यक़ीन है कि आपने हमारी रचना को तटस्थता के साथ ही पढ़ा होगा। मुझे इस बात का पूर्ण संज्ञान है कि किसी धर्म विशेष के प्रति आपका कोई भेदभाव कभी नहीं रहा और आप सभी धर्मों को एक समान दृष्टि से देखती हैं। इसलिए आपको इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का स्पष्टीकरण देने की कोई आवश्यकता है। अँग्रेज़ी का वह उद्धरण तो आपने पढ़ा ही होगा- 'never explain yourself. Your friends don’t need it and your enemies won’t believe it.'
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रजतजी ,हम शीतला माता को इसलिए नहीं पूजते की वो चेचक जैसी बीमारियों की जनक हैं ,बल्कि उनके पास ऐसी शक्ति है जो इन बीमारियों से हमें बचाती हैं। जब हम बीमार होते हैं तो डॉक्टर के पास ही जाते हैं क्योंकि उनके पास उस बीमारी का इलाज होता है ,लेकिन इसका मतलब ये नहीं है की डॉक्टर ही सारी बीमारियां फैलाते हैं।