Quote:
Originally Posted by soni pushpa
अनजानी राहें
एक अनजान रह पर चल पड़े मुसाफिर
चलना था, बस चलना ही था इस राह पर
आगे क्या होने वाला है, ये पता नहीं था
अपने सब हैं साथ ख़ुशी थी इसकी काफी
अपनों से दूर हुआ तो सहसा कांप उठा
मन की धरती से आहों का संताप उठा
सुख दुःख किसे सुनायेगा ए पथिक बता
तेरी आँखों में तो भरे हैं अपनों के सपने
....
मन में दबी उदासी बाहर से नज़र नहीं आती
छुपे हुए आंसू और आहें भी नज़र नहीं आती
अरमा सबके पूर्ण हुए, है इसका संतोष मगर
दूर तलक मुझको अपनी मंज़िल नज़र नहीं आती
|
बहुत गहरी और दार्शनिक दृष्टिकोण वाली रचना. सांसारिक अनुभवों तथा आध्यात्मिक संचेतना का समन्वय प्रस्तुत करती है यह कविता. हर लिहाज़ से एक अद्वितीय रचना. यहाँ शेयर करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, बहन पुष्पा जी.