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Old 10-06-2012, 01:00 PM   #55
neelam
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

जैसे काठ को भीतर से घुन खा जाता है और बाहर से बहुत सुन्दर दीखता है वैसे ही यह जीव बाहर से सुन्दर दृष्टि आता है और भीतर से उसको तृष्णा खा जाती है । जो मनुष्य पदार्थ को सत्य और सुखरूप जानकर सुख के निमित्त आश्रय करता है वह सुखी नहीं होता है । जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़के पार उतरा चाहे तो पार नहीं उतर सकता, मूर्खता से डूबेगा, वैसे ही जो संसार के पदार्थों को सुखरूप जानकर आश्रय करता है सो सुख नहीं पाता, संसारसमुद्र में डूब जाता है हे मुनीश्वर! यह संसार इन्द्र धनुष की नाईं है । जैसे इन्द्रधनुष बहुत रंग का दृष्टि आता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है । इस प्रकार जगत् को मैंने असत् रूप जानकर निर्वासनिक होने की इच्छा की है ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे संसारसुखनिषेध-वर्णनन्नाम नवमस्सर्गः ॥९॥
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