दो.-कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ।।8क।।
फिर उन लोगों ने कौसल्या जी के चरणोंमें मस्तक नवाये। कौसल्याजीने हर्षित होकर आशिषें दीं [और कहा-] तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो।।8(क)।।
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद।।8ख।।
आनन्दकन्द श्रीरामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की बृष्टि से छा गया। नगरके स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं।।8(ख)।।
चौ.-कंचन कलस बिचित्र संवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।।
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।1।।
सोनेके कलशों को विचित्र रीतिसे [मणि-रत्नादिसे] अलंकृत कर और सजाकर सब लोगोंने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगलके लिये बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगायीं।।1।।
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।।
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।2।।
सारी गलियाँ सुगन्धित द्रवोंसे सिंचायी गयीं। गजमुक्ताओंसे रचकर बहुत-सी चौकें पुरायी गयीं अनेकों प्रकारके के सुन्दर मंगल-साज सजाये गये औऱ हर्षपूर्वक नगरमें बहुत-से डंके बजने लगे।।2।।
जहँ तहँ नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।।
कंचन थार आरतीं नाना। जुबतीं सजें करहिं सुभ गाना।।3।।
स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ निछावर कर रही है, और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती है। बहुत-सी युवती [सौभाग्यवती] स्त्रियाँ सोने के थालोंमें अनेकों प्रकारकी आरती सजकर मंगलगान कर रही है।।3।।
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।।
पुर शोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना।।4।।
वे आर्तिहर (दुःखोंको हरनेवाले) और सूर्यकुलरूपी कमलवनके प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामजीकी आरती कर रही हैं। नगरकी शोभा, सम्पत्ति और कल्याणका वेद शेषजी और सरस्वती वर्णन करते हैं-।।4।।
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं।।5।।
परन्तु वे भी यह चरित्र देखकर ठगे-से रह जाते हैं (स्तम्भित हो रहते हैं)। [शिवजी कहते हैं-] हे उमा ! तब भला मनुष्य उनके गुणोंको कैसे कह सकते हैं।।5।।