गज़ल
कागज़-कलम उठाए, तो गज़ल बन गई,
फिर कुछ लिख ना पाए, तो गज़ल बन गई!
हमने तुम को मांगा और तुम मुस्कुराए,
कुछ ख्वाब ऍसे आए, तो गज़ल बन गई!
मुलाकातों में अक्सर खामोश ही रहे हम,
तनहा दो पल बिताए, तो गज़ल बन गई!
चिंगारी जैसी यादें सीने में उठ रही थी,
जब शोले लपलपाए, तो गज़ल बन गई!
भेजने से जिनको कोई फर्क भी न पड़ता,
ख़त सारे वो जलाए, तो गज़ल बन गई!
दर्द-ओ-ग़म, ग़म-ए-शाम और शाम-ए-तनहाई,
सीने से जब लगाए, तो गज़ल बन गई!
(दीप ९.६.१५)
'गज़ल' बस ऍसे ही बन गई है, शायद आपको पीछली रचनाओं के मुकाबले थोडी फिकी लगे। शब्दों की त्रुटियां तो खैर रजनीश जी सुधरवा ही देंगे, बाकी टीका-टिप्पणी आवकार्य है!