ग़ज़ल सबके सरोकार की
आओ मिल जुल के इक मशाल जलाई जाये ;
गन्दगी जितनी दिखे , आग लगाई जाये .
ख़्वाब जिसके दिखाये थे , वो तो बन के न मिली ;
अब तो ख़ुद ही नई तस्वीर बनाई जाये .
रास्ता बेहतरी का ताकते जो पथराईं ;
फिर से उम्मीद उन आँखों में जगाई जाये .
जो अन्धेरों को मान बैठे मुकद्दर अपना ;
रौशनी उनके निशाने पे भी लाई जाये .
चन्द जिन लोगों ने हथिया लिया सूरज सारा ;
नक़ाब ऐसे शरीफ़ों की हटाई जाये .
झोपड़े रौंद के जितने भी बने ताज महल ;
वक़्त की माँग है , बुनियाद हिलाई जाये .
अवाम गूँगी हो तो तख़्त भी बहरा बनता ;
मिल के आवाज़ तबीयत से उठाई जाये .
खेल जज़्बात से , पत्थर जो ख़ुदा बन बैठे ;
या तो पसीजें , या फिर उनकी ख़ुदाई जाये .
रहनुमा जिनको बनाया था , बन गये रहजन ;
इनकी हद फिर से इन्हें याद दिलाई जाये .
हमने ख़ुद के ही मसअलों के गीत गाये बहुत ;
अब ग़ज़ल सबके सरोकार की गाई जाये .
रचयिता ~~ डॉ .राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .
( शब्दार्थ > अवाम = जनता , तख़्त = शासक , खुदाई = ईश्वरीय भाव / देवतापना , रहनुमा= लीडर
/ गाइड , रहजन = लुटेरा , हद = सीमा , मसअलों = समस्याओं , सरोकार = सम्बन्ध / वास्ता )
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