टीवी समाचार मीडिया में उत्पात
टीवी समाचार मीडिया में उत्पात
प्रस्तुति और मुनाफे की प्रतिस्पर्धा ने अमेरिकी समाचार चैनलों को कुछ ऐसा भयानक ढंग से हास्यास्पद बना दिया कि उनके कुछ कार्यक्रमों और एंकरों का मज़ाक उड़ाते कार्यक्रम तक बनने लगे और वे हिट भी रहे. ऐसे ही एक मशहूर टीवी प्रेजेंटर हैं जॉन स्टीवर्ट. कॉमेडी शो करते हैं. उनका कहना है कि टीवी स्टूडियो पत्रकारिता की पेशेवर कुश्तियों के रिंग्स में बदल जाते हैं. उनमें शोर और हमले हैं और मामला साफ करने की होड़. वे एक दूसरे से टकरा टकरा कर लहूलुहान से हुए जाते हैं लेकिन एक विचार आगे नहीं बढ़ाते. यानी दर्शक तक कोई भी स्पष्ट राय नहीं पहुंचती. सोशल एक्टिविस्ट शबनम हाशमी ने एक अंग्रेजी चैनल के लोकप्रिय बताए गए शो में अपने साथ पिछले दिनों हुए दुर्व्यवहार पर तीखी टिप्पणी की थी कि कैसे उन्हें शो में बोलने नहीं दिया गया उनकी बात काटी गई और कैसे वो कार्यक्रम का बॉयकाट कर चली गई और कैसे चैनल के बाइट बटोरिए उनके पीछे ही पड़ गए. इस चैनल के ऐसे और भी कई “विक्टिम” रहे हैं जिनमें अरुंधति रॉय भी एक हैं.
एक लिहाज से ये संकुचित, सतही और साजिश वाली पत्रकारिता का दौर माना जाएगा. संकुचित इसलिए कि कंटेंट बहुत निर्धारित किया हुआ और शर्तों और दबावों से दबा हुआ होता है, सतही इसलिए कि उसमें मौलिकता और वस्तुपरकता और गहरे विश्लेषण का अभाव है और साजिश इसलिए कि लगता है मुनाफा ही आखिरी मकसद है या कोई छिपा हुआ राजनैतिक सांस्कृतिक या आर्थिक एजेंडा. अन्ना आंदोलन में हम ये देख चुके हैं, जब कैमरे के कैमरे क्रेन से रामलीला मैदान पर उतरे हुए थे या मोदी के भाषणों में बहसों लाइव रिपोर्टिंग और विश्लेषणों की सूनामी जैसी आ गई थी. मोदी की “उतावली” की छानबीन के बजाय उनके दिल्ली आगमन पर लहालोट हो जाना- ये दर्शक को खबर की वस्तुपरकता और विश्लेषण और निष्पक्षता से दूर ले जाने की साजिश नहीं तो और क्या है. मुकेश अंबानी क्यों गैस की कीमतों को बढ़ाए जाने पर जोर देते रहे हैं, ये हमें नहीं पता चलता. क्यों हमें एक ही ढंग से खबर देखने को विवश किया जाता है. ऊपर से तुर्रा ये कि नहीं देखना तो कौन कहता है. टीवी बंद कर दीजिए. विनम्रता अब दूर की कौड़ी है.
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