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Old 18-08-2012, 03:39 PM   #110
Dark Saint Alaick
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

दान और व्यापार में अंतर

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पास रोजाना अनेक व्यक्ति अपनी विभिन्न प्रकार की समस्याएं लेकर पहुंचते थे। वहां जो भी आता था उसे यही उम्मीद रहती थी कि महात्मा गांधी उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनेंगे और उसका निराकरण भी बताएंगे। चूंकि महात्मा गांधी का स्वभाव काफी उदार था और वे सबके साथ सहयोगपूर्ण रवैया रखते थे इसलिए आम जनता से लेकर खास लोगों तक सभी को यह लगता था कि महात्मा गांधी उसके अपने हैं और उसकी बात को बड़े ध्यान से सुनेंगे। इसी कारण कोई भी उनके पास आने में कतई संकोच नहीं करता था। वे जब भी अपने नियमित कार्यों से फुरसत पाते,लोगों से भेंट-मुलाकात का उनका सिलसिला चल पड़ता। ऐसे ही एक बार महात्मा गांधी के पास एक सेठ आए। वह सेठ काफी सम्पन्न थे और दूर-दूर तक उनका नाम भी था। उस सेठ को लोग दानदाता सेठ के नाम से भी जानते थे क्योंकि वे हर अच्छे काम के लिए मोटी रकम दान में देते थे। महात्मा गांधी उनका चेहरा देखकर समझ गए कि वह काफी परेशानी में हैं। उन्होंने सेठ से बड़े स्नेह से समस्या के विषय में पूछा तो वे शिकायती लहजे में बोले-देखिए न बापू,दुनिया कितनी कपटी है। मैंने पचास हजार रुपए लगाकर एक धर्मशाला बनवाई। धर्मशाला बनने पर मुझे ही उसकी प्रबंध समिति से अलग कर दिया गया। जब तक वह नहीं बनी थी तब तक वहां कोई नहीं आता था और अब बन जाने पर पचासों उस पर अधिकार जताने आ गए है। महात्मा गांधी ने मुस्कराकर समझाया-दान का सही अर्थ न समझ पाने के कारण आपको दुख है। किसी चीज को देकर कुछ पाने की इच्छा दान नहीं, व्यापार है और जब व्यापार किया है तो लाभ और हानि के लिए आपको तैयार रहना चाहिए। व्यापार में लाभ भी हो सकता है और हानि भी। दान तभी फलितार्थ होता है जब वह प्रतिदान की इच्छा से रहित हो। निस्वार्थ और निरपेक्ष भाव से किया गया दान सही मायने में दान है। इसके बगैर दान का कोई अर्थ नहीं है। महात्मा गांधी की बात सुनकर सेठ को अपनी गलती का अहसास हुआ।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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