Re: किस्सा तीन बहनों का
किस्सा तीन बहनों का
परवेज के जाने के बाद परीजाद को बहमन की यात्रा के समय से भी अधिक शंका बनी रहती थी। वह बहमन के दिए खंजर को तो कभी-कभी ही देखती थी किंतु परवेज की दी हुई माला को अपने गले में डाले रहती और हमेशा उसके मोतियों पर हाथ फेर कर उनकी दशा को देखती रहती थी। चुनांचे ज्यों ही परवेज काले पत्थर की शिला के रूप में परिवर्तित हुआ उसके कुछ ही देर बार परीजाद को उसकी मृत्यु का हाल मालूम हो गया क्योंकि माला के मोती एक-दूसरे से ऐसे चिपक गए थे कि माला फेरना असंभव था।
परीजाद उस समय तो दुख के कारण अचेत हो गई किंतु बाद में होश आने पर उसने फैसला किया कि दोनों भाइयों को मौत के मुँह में भेजने के बाद अब मेरे जीवन का भी कोई अर्थ नहीं है। उसने भी घुड़सवारी और शस्त्र संचालन की शिक्षा ली थी और उसमें साहस की कमी न थी। उसने मर्दाने कपड़े पहने, हथियार लगाए और घोड़े पर सवार हो गई। उसने गृह-प्रबंधक को आदेश दिया कि जब तक वह वापस न आए वह खुद महल की देखभाल करे, किसी प्रबंध में कमी न होने पाए।
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
|