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Originally Posted by pavitra
हमसफर
कभी कभी सोचती हूँ कि,
चेहरे के इस नूर की वजह क्या है?
तुम्हारी आँखें इतनी हसीन हैं इसलिए.....
या
तुम्हारे होंठों पर हँसी है इसलिए.....
कभी कभी सोचती हूँ कि,
ज़िंदगी में जो ज़रूरी है वो ज़रूरी क्यों है?
उसके बिना जीना मुश्किल है इसलिए.....
या
उसको पाना थोड़ा मुश्किल है इसलिए.....
कभी कभी सोचती हूँ कि,
इस ज़िंदगी को जीने का मक़सद क्या है?
ये ज़िंदगी तुमसे राब्ता है इसलिए.....
या
इस ज़िंदगी में तुमसे राब्ता हो इसलिए.....
कभी कभी सोचती हूँ कि,
क्यों चाहती हूँ तुम्हें?
तुम मेरे "हमसफ़र" हो इसलिए.....
या
मेरे हमसफ़र "तुम" हो इसलिए....
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उक्त कविता इतनी खुबसूरत व् अर्थपूर्ण है कि इसे पूरी तरह उद्धृत करना आवश्यक हो गया है. इसमें रहस्यवाद की झलक भी है और एक सूफ़ी का समर्पण भी है. पिछली रचना के आठ माह बाद प्रकाशित यह एक उल्लेखनीय कविता है. शेयर करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, पवित्रा जी.