15-09-2013, 11:15 PM
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व्यंग्य: सारे जहाँ से अच्छी भारतीय रेलें
व्यंग्य: सारे जहाँ से अच्छी भारतीय रेलें
आलेख: विनोद शंकर शुक्ल
भारतीय रेलों से मुझे प्यार है। गाय और गंगा की तरह रेलों को हमें माता मानना चाहिए। वे भी दिन–रात जन सेवा में जुटी रहती हैं। 90 करोड़ संतानों को अविचलित भाव से ढोती हैं। संतानें डिब्बों में यों खचाखच भरी होती हैं, ज्यों दड़बे में चूज़े। खिड़कियों में यो लटकी रहती हैं, जैसे पेड़ पर चमगादड़ें। फुटबोर्डों पर यों खड़ी रहती हैं, जैसे पतले तार पर नट। कुछ संतानों को छत पर बैठना अच्छा लगता है।वे छत पर ऐसे बैठी रहती हैं, जैसे सर्कस के कलाकार झूले पर। दरअसल हमारे इस गणतंत्रमें डिब्बे के अंदर हवा का संकट हमेशा बना रहता है। यात्री को गंतव्य तक बिना हवा के काम चलाना पड़ता है। यह एक कठिन योग–साधना है। छत मुसाफ़िरों को इस तपस्या से बचाती है। दूसरी बात यह है कि टी. टी. चाहकर भी ऊपर नहीं पहुँच सकता। इससे भ्रष्टाचार की एक नई शाखा नहीं फूटने पाती। कुछ संतानें अत्यंत रोमांचप्रिय होतीहैं। उन्हें दुर्गम स्थानों पर अतिक्रमण में आनंद आता है। वे बोगियों के बीच लगे बंपरों पर ही कब्जा कर लेती हैं। संभवत: वे रेल और घुड़सवारी दोनों का मज़ा एक साथउठाना चाहती हैं।
भारतीय रेलों की सहनशीलता स्तुत्य है। धरती की तरह वे भी बड़ा कलेजा रखती है। संतानों द्वारा वे भी उत्पीड़ित हैं। अत: उन्हें भी माँ का दर्जा मिलना चाहिए। माँ का दर्ज़ा देकर हम किसी भी वस्तु पर ज़्यादती का अधिकार पा लेते हैं। गंगा हमारी माँ हैं। इसीलिए हमने उसे खूब प्रदूषित कर दिया है। रेलों को भी हमें पूज्य घोषित कर देना चाहिए। पूज्य घोषित कर देने से पूजित की दुर्गति करने में आसानी हो जाती है।
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भारतीय रेलों में ही यह सुविधा है कि आप जहाँ चाहें बैठ जाएँ। रेलों की ओर से कोई प्रतिबंध नहीं। सीट नहीं मिलती तो लगेज रखने का स्थान ही सही। वहीं हाथ–पैर मोड़कर बैठ जाइए। वहाँ भी 'हाउसफुल' हो तो फ़र्श हाज़िर है। रास्ते में ही पेटी–बिस्तर लगाकर पसर जाइए। सहयात्री आपको कष्ट दिए बिना ऊपर से आते–जाते रहेंगे।
भारतीय रेलों का यह दृश्य बड़ा ही मनोरम होता हैं। लगता है, अंतरिक्ष–यात्री यान में तैर रहे हैं। अभी आसमाँ और भी हैं। आप पंखों पर लटक कर यात्रा कर सकते हैं। वैसे भी भारतीय रेलों के पंखे हवा तो देते नहीं। शोर भर करते रहते हैं। पंखों पर जगह न मिले तो शौचालय शेष है। वहाँ आसन जमा लीजिए। अन्य यात्रियों की चिंता मत कीजिए। दरअसल भारतीय रेलों का पूरा कंपार्टमेंट ही शौचालय होता है। बैठने के इतने विकल्प विश्व की कोई रेल–सेवा नहीं दे सकती। हमें अपनी रेलों पर गर्व करना चाहिए।
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भारतीय रेलों की सौंदर्यप्रियता भी मुझे मुग्ध करती हैं। हमारी रेलों का सौंदर्य-बोध बहुत बढ़ा–चढ़ा है। वे जहाँ सुंदर झील–झरने देखती हैं, गिर पड़ती हैं। ज़्यादातर रेल दुर्घटनाएँ सुंदर प्राकृतिक स्थलों के आस–पास ही होती है। कुछ साल पहले केरल की अष्टमुदी झील में आयलैंड एक्सप्रेस गिर पड़ी थी। शायद झील का शीतलजल देख कर एक्सप्रेस से रहा नहीं गया। वह झील को स्वीमिंग पूल समझकर फ़िल्मी सुंदरीकी तरह कूद पड़ी। कई बार सुंदर लैंडस्केप देख ट्रेनें पटरी से उतर जाती हैं। अकसर आशिकाना मौसम भी उन्हें बहका देता हैं। सुहाना सफ़र और मौसम हँसी हो तो भला कौन अपने को रोक सकता है। इस देश में सौंदर्य देखकर रसिक ही नहीं फिसलते, रेलें तक फिसल जाती हैं। अधिकांश दुर्घटनाओं के पीछे भारतीय रेलों का सौंदर्य प्रेम ही उत्तरदायी होता है। सरकार दुर्घटना रोकना चाहती है तो तमाम सुंदर दृश्यों को रेल के रास्ते से हटा देना चाहिए। रेलों का प्रकृति प्रेम मनुष्य को बहुत महँगा पड़ता है।
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हमारी रेलें बड़ी पुरातन प्रिय हैं। जो भी जीर्ण और जर्जर है – वह रेल विभाग को प्यारा है। इसीलिए समूचा रेल–विभाग एक विशाल पुरातात्विक संग्रहालय की तरह दिखाई देता है। उसके पुल, पटरी, डिब्बे, एंजिन – सभी पुरातात्विक महत्व के हैं।भारतीय रेलों का हर बारहवाँ डिब्बा कबाड़ में डालने लायक है। हर सातवाँ एंजिन पेंशनकी पात्रता रखता है। हर पाँचवाँ पुल अंतिम यात्रा का मोहताज है। रेल–विभाग फिर भी सभी को सीने से लगाए हैं।
शायद वह अपनी हर संपत्ति को अनश्वर समझता है। इसीलिए वह ईस्ट–इंडिया कंपनी के ज़माने के कलपुर्जोंको भी नहीं बदलता। भारतीय रेलों की यह पुरातन-प्रियता अभिनंदनीय है।
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किसी 'रेल से जले' शायर ने मिर्ज़ा ग़ालिब की तर्ज़ पर अर्ज़ किया है ––
ये रेलयात्रा नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजै
ज्यों मौत के मुँह में से, मंज़िल को पाना है।
Last edited by rajnish manga; 16-09-2013 at 02:14 PM.
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