युग बीते सुदिनो की बाट ही निहारते
युग बीते सुदिनोँ की बाट
ही निहारते
सारे शुभत्व पर
ग्रहण की छाया
तभी तभी पड़ी
जब मनका कुछ पाया
दिनोँ के फेर देख मन
को पुचकारते
प्रतिबिम्बोँ मे भासित
मर्म को परखते
मरूथली मरीचिकायेँ
भ्रमित हो विखरते
बचपन सा भोरा विश्वास
सतत हारते
जाने क्या क्या
करना चाहा आरक्षित
अवनी से अम्बर तक
कितना कुछ इच्छित
अंजुरी भर धूप से अंधेरे
बुहारते
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."
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