Re: डार्क सेंट की पाठशाला
महत्वाकांक्षा ने खोली आंखें
किसी जमाने में एक बौद्ध मठ में सुवास नामक एक भिक्षु रहता था। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी था। इस महत्वाकांक्षा के चक्कर में वह ऐसी बातें भी सोचने लगता था जो उसके वश में नहीं होती थी। वह हमेशा यही सोचता रहता था कि बुद्ध की तरह वह भी नव भिक्षुओं को दीक्षित करे और उसके शिष्य उसकी नियमित चरण वंदना करें। मगर वह यह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी इस इच्छा की पूर्ति कैसे करे। अपनी इस आदत के कारण वह मठ में रहने वाले दूसरे भिक्षुओं से आम तौर पर कटा-कटा सा रहता था। कई बार जब दूसरे भिक्षु उसे कुछ कहने का प्रयास करते तो वह उनसे दूरी बनाने की कोशिश करता या ऐसा कुछ कहता जिससे उसकी श्रेष्ठता साबित हो। दूसरे भिक्षु इस कारण उससे नाराज रहते थे लेकिन उसकी आदत को समझ कर उससे ज्यादा तर्क-वितर्क नहीं करते थे। एक दिन बुद्ध ने जब प्रवचन समाप्त किया और सारे शिष्यों के जाने के बाद सभा स्थल खाली हो गया तो अवसर देख सुवास ऊंचे तख्त पर विराजमान बुद्ध के पास जा पहुंचा और कहने लगा- प्रभु,आप मुझे भी आज्ञा प्रदान करें कि मैं भी नव भिक्षुओं को दीक्षित कर उन्हे अपना शिष्य बना सकूं और आपकी तरह महात्मा कहलाऊं। यह सुनकर बुद्ध खड़े हो गए और बोले- जरा मुझे उठाकर ऊपर वाले तख्त तक पहुंचा दो। सुवास बोला-प्रभु इतने नीचे से तो मैं आपको नहीं उठा पाऊंगा। इसके लिए तो मुझे आपके बराबर ऊंचा उठना पड़ेगा। बुद्ध मुस्कराए और बोले-बिल्कुल ठीक कहा तुमने। इसी प्रकार नव भिक्षुओं को दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरे समकक्ष होना पड़ेगा। जब तुम इतना तप कर लोगे तब किसी को भी दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मगर इसके लिए प्रयास करना होगा। केवल इच्छा करने से कुछ नहीं होगा। सुवास को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने बुद्ध से क्षमा मांगी। उस दिन से उसका व्यवहार और सोच पूरी तरह बदल गई और उसमें विनम्रता आ गई।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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