View Single Post
Old 05-02-2012, 09:20 PM   #6
Dr. Rakesh Srivastava
अति विशिष्ट कवि
 
Dr. Rakesh Srivastava's Avatar
 
Join Date: Jun 2011
Location: Vinay khand-2,Gomti Nagar,Lucknow.
Posts: 553
Rep Power: 35
Dr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond reputeDr. Rakesh Srivastava has a reputation beyond repute
Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच


( 3 )

एक बात तो है - - - कि जिस घर में डाइनिंग - टेबल पर या अन्यत्र यथा संभव एक साथ बैठ कर परिवार के सभी सदस्य नियमित रूप से नाश्ते तथा भोजन का आनन्द लेते हैं - - - उस सौभाग्यशाली परिवार के सदस्यों में संवाद की निरंतरता निश्चित ही बनी रहती है . वहां संवादहीनता नहीं पनपने पाती . यदि परिवार के किन्हीं दो सदस्यों में वैचारिक भिन्नतावश मनमुटाव प्रारंभ भी हो जाता है तो उसका त्वरित समाधान इस स्थान विशेष पर संवाद के जरिये स्वतः निकल आता है . यदि दो सदस्यों में किसी विषय विशेष को लेकर अनबन की कोई स्थिति उत्पन्न भी हो जाए तो उनके चेहरों पर छलक आये मनोभावों को पढ़कर घर के पारखी बुज़ुर्ग अपने तजुर्बे व कौशल से तत्काल ही मध्यस्थता कर कोई सर्वमान्य समाधान निकाल कर उनके मन - मस्तिष्क पर जमे एक दूसरे के प्रति मैल को धो देते हैं . इस प्रकार परिवार में क्रमशः संवाद हीनता , मन मुटाव तथा विलगाव की स्थिति यथा संभव टल जाती है - - - और परस्पर प्रेम भाव बना रहता है . यही एक बहुत महत्वपूर्ण लाभ है -- प्रतिदिन साथ बैठकर खाने - पीने का .
यह अच्छी आदत प्रोफ़ेसर साहब ने भी अपने परिवार में डाली थी . इसी आदत के अनुरूप - - - मेज के इर्द - गिर्द चंचल , गेसू और प्रोफ़ेसर साहब शाम के नाश्ते के इन्तज़ार में बैठे थे . जबकि पायल किसी आवश्यक कार्य वश कहीं बाहर गई हुई थी .
कमरे में लगी दूधिया विद्युत - ट्यूब मुस्कराती हुई सुखद रौशनी बिखेर रही थी . खिड़की पर लगे खूबसूरत रेशमी परदे हवा की छेड़खानी के चलते किसी हसीना की जुल्फों की तरह लहरा रहे थे . कमरे से बाहर - - - गोधूल - बेला में शाम और रात गलबहियां करके कल फिर मिलने का वादा कर रहे थे - - - कसमें खा रहे थे -- प्रेमी - प्रेमिका की भाँति . बाहर बगीचे में खिलखिलाते बेला की भीनी - भीनी ख़ुश्बू खिड़की फलांग कर कमरे में अनवरत रूप से दाखिल हो - होकर नाक के रस्ते सभी के मस्तिष्क में घुसकर मन को खुशहाल करने पर तुली हुई थी .
और तभी !
ठीक उसी समय - - - नौकरानी रधिया ने आकर सूचना दी कि कोई साहब गेसू से मिलना चाहते हैं .
" उन्हें सादर अन्दर बुला लो . " प्रोफ़ेसर साहब बोले .
रधिया बाहर चली गई . थोड़ी देर में एक नवयुवक कमरे में दाखिल हुआ . कसी लम्बी कद काठी वाले युवक के चेहरे से पौरुष छलछला रहा था . ऐसा सुता चेहरा था , जिसे लड़कियां कनखियों से देखना पसंद करती हैं .
सभी ने संस्कार वश थोड़ा सा खड़े होकर उस अपरचित के स्वागत की औपचारिकता निभायी .
दुआ - सलाम के बाद प्रोफ़ेसर साहब सामने की कुर्सी की ओर इशारा करके बोले -- " कृपया बैठें . "
" धन्यवाद . " कहकर युवक बैठ गया .
"माफ़ कीजिये ! मैंने आपको पहचाना नहीं ." गेसू ने कहा .
" एक प्याला चाय खर्चा कीजिये . अभी जान - पहचान हुई जाती है . " युवक ने हंसकर जवाब दिया .
प्रोफ़ेसर साहब ने मुस्कराकर चाय का एक प्याला युवक को देकर पूछा -- " फिर भी - - - आपकी तारीफ़ ? "
युवक भी मुस्कराकर बोला -- " सर जी ! तारीफ़ तो उस खुदा की है , जिसने मुझे लापरवाही में बनाया . वैसे बन्दे को गुलशन कहते हैं . गुलशन ' बावरा '- - - ."
" बावरा क्यों ? आप बावरे कैसे हो ? " गेसू ने बीच में ही रोककर मध्यम हंसी में मुलायम चुटकी ली .
ली गयी चुटकी क्योंकि किसी युवती की थी - - - इसलिए गुलशन ने दिल पर न लेकर , उसका मजा ही लिया और दो कदम आगे बढ़कर हाज़िर जवाबी दिखाई -- " वास्तव में - - - पहले तो मै था सादा - सूदा गुलशन - - - और चूंकि गुलशन में गुल खिलते - खिलते रह गया - - - इसलिए गुलशन बावरा हो गया . "
इतना कहकर गुलशन ने हंसकर गेसू से पूछा -- " अपने चेहरे - मोहरे का भी वर्णन करूँ क्या ? "
" हाँ -हाँ - - - क्यों नहीं - - - जरूर . " गेसू भोर के गुलाब की तरह मुस्कराकर चहकी .
" तो सुनिए ! " गुलशन लम्बी सांस भरकर कहने लगा --" मेरी कद काठी हिन्दुस्तानी और भाग्य बेमानी किस्म का है . चेहरा मर्दाना - -- - मगर मूंछें गुजरे बाप की याद दिलाती सफाचट हैं . औसत पतलून व बुश - शर्ट पहनता हूँ और जनता की भाषा में बोलता हूँ - - - लेकिन अंग्रेजी में सोचता हूँ . सोचता - बोलता ज्यादा - - - मगर करता कम हूँ . इसीलिए मेरा मन एकदम भारतीय बुद्धिजीवी सरीखा हो गया है . मेरी कल्पना पेशावरी घोड़े की तरह जमीनी सतह से थोडा ऊपर ही हवा में दौड़ती है . यानी मिजाज शायराना है . पर कुल मिलकर मै एक हिन्दुस्तानी किस्म का आदमी हूँ . मेरी आमदनी में किसी इनकम - टैक्स वाले ने कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली - - - इसलिए कुल मिलाकर मै औसत हिन्दुस्तानी ही हूँ . "
इतना कहकर और हँसकर गुलशन ने एक बिस्किट उठाकर मुंह में कैद कर लिया .
सभी हंस पड़े उसकी बात पर . गेसू भी हंसी -- घुँघरू खनकने वाली हंसी .
" आप बहुत दिलचस्प आदमी हैं . " वह हँसते - हँसते बोली .
" कभी - कभी . " गुलशन ने गंभीर होकर कहा .
अबकी चंचल ने अपना मौन तोड़ा -- " क्या आप बताएँगे कि आपका हमारे यहाँ कैसे आना हुआ और हम आपके किस काम आ सकते हैं ? "
" अभी तो शायद किसी काम नहीं . जी - - - बात ये है - - - मुझे पिछले माह एक पर्स पड़ा मिला था - - - . "
पर्स की बात सुनकर सभी चौंक पड़े . सबके दिलों में हर्ष मिश्रित उत्सुकता कुलबुलाने लगी , आँखों में उम्मीद के दिए लपलपाने लगे और कान कुछ सुखद सुनने के लिए फड़फड़ाने लगे .
उनके मनोभावों को बांचकर , गुलशन बिना विलम्ब अपनी बात को जारी रखते हुए बोला -- " उस पर्स में गेसू जी की फोटो युक्त बैंक - पास - बुक थी , मय साढ़े तीन हज़ार रुपयों के . किन्तु मेरे लिए यह भी एक सुखद संयोग ही था कि उसी वक्त मुझे कुछ रुपयों की अत्यधिक आवश्यकता थी . मै तो धनाभाव में निराश ही हो चुका था . बेबसी का मोटा माड़ा मेरी आँखों पर छा चुका था - - - लेकिन पड़े मिले रूपये हाथ आते ही मैंने इसे ईश्वर का संकेत और मेहरबानी मान कर उसमे से जरूरत भर रूपये कार्य विशेष में खर्च कर दिए . खर्च करने से पूर्व मैंने पास - बुक का अध्ययन कर अनुमान लगा लिया था कि इन रुपयों के अभाव में गेसू जी के किसी कार्य में कोई विशेष व्यवधान नहीं पड़ेगा . और फिर - - - कुछ दिनों के अंतराल पर पर जब मैंने रूपये पुनः एकत्र कर लिए तो फ़ौरन ही इन्हें इनके असली हकदार तक पहुंचाने चला आया . हाँ - - - इस वापसी में मेरे कारण जो थोड़ा विलम्ब हुआ -- - - उसके लिए मै क्षमा चाहता हूँ . "
गुलशन ने अपने कंधे पर लटके कम्युनिस्टी थैले से पर्स निकाल कर मेज पर रख दिया और सचमुच हाथ जोड़ दिए .
" अरे - - - रे - - - ये तुम क्या कर रहे हो ! " चंचल व प्रोफ़ेसर साहब साथ - साथ बोल पड़े .
बाप और बेटे इस गला काट महगाई के जमाने में ईमानदारी की ऐसी जिन्दा मिसाल मशाल की तरह अपने सामने लपलपाती देख आश्चर्य चकित हो उठे . उनकी आँखें निहाल और सुधियाँ मालामाल हो गयीं . इस छोटे से पल उन्होंने उस दुर्लभ पल को भरपूर जिया - - - जब कुछ खोकर नहीं बल्कि कुछ पाकर भी व्यक्ति ठगा - सा रह जाता है . उन्हें लगा जैसे उन्होंने भेड़ को बकरी जनते हुए देखा हो . जैसे गूलर पर फूल उगते देखा हो . जैसे तपते विशाल रेगिस्तान के बीच कहीं कोई जल - स्रोत फूटते देखा हो . और गेसू - - - वो तो सम्मोहित सी , कभी पर्स तो कभी गुलशन को देख रही थी . और कभी - कभी तो जागती आँखों में तैरते सपनों में उसको अपने बगल में बिठा कर कुछ आंकलन सा कर रही थी .
गुलशन ने कहा -- " अच्छा - - - तो अब मुझे चलना चाहिए . "
" अभी नहीं जाने देंगे . तुम जैसे ईमानदार आदमी के साथ मै अपना अपना अधिक से अधिक समय बिताना पसन्द करूंगा . वास्तव में तुम ईमानदार और नेक आदमी हो - - - और अगर इसी तरह चलते रहे तो बहुत दूर तलक जाओगे . यह मेरी सोच भी है और कामना भी . न जाने आज सांझ - ढले मेरी किस्मत का कौन सा सितारा मुस्कराया है , जो तुम जैसे नेक इंसान से मुलाक़ात हुई . " प्रोफ़ेसर साहब के दिल की गहराइयों से आवाज आई .
" आपने रूपये नहीं गिने ! " अधिक प्रशंसा का स्वाद पाकर गुलशन की जबान कुछ फिसल गई .
" आप हमें शर्मिंदा कर रहे हैं " बाईस बसंतों से लदी - - - गदराई जवानी के खुमार से बोझल पलकों के भीतर कैद - - - गेसू की जादुई आँखों में मानो शिकायत उभर आई .
गेसू ! बाईस साल की उफनती जवानी . ऐसी - - - जैसे टेसू पर फूल गदरा आये हों -- मादक , रस भरे . भादों के जामुन की सबसे ज्यादा लदी लचलची डाल - सा उसका यौवन था . उसका भरा सानुपातिक मखमली शरीर एक खूबसूरत बगीचे की तरह खिला हुआ था . उसके होठ बड़े प्यारे थे . कितने रसीले - - - शहतूती होठ ! यदि उंगली रख कर दबा दें तो रस छलछला कर बाहर आ जाए . उसकी शरबती आवाज वातावरण को मीठा बनाने में माहिर थी . उसकी सम्मोहक नज़र किसी को भी उम्र कैद सुनाने का बूता रखती थी . उसकी मुस्कान ऐसी थी , जैसे सुबह के खिलते पवित्र कमल की सात्विक मुस्कान . चलते समय उसकी कमर ऐसे बलखाती थी - - - ऐसे लहराती थी , जैसे कटी हुई खूबसूरत पतंग . कुल मिलाकर वह बेहद खूबसूरत थी और हुस्न का ऐसा धधकता सूरज थी , जिसकी तरफ सूर्यमुखी के फूल की तरह सदा निहारते रहना युवा पुरुष अपना परम धर्म समझें . ऐसा लगता था - - - विधाता ने फुर्सत में उसे बड़े सधे हाथों से गढ़ा हो . तभी तो उसकी हर बात सधी हुई थी . उसका हर अंदाज़ सधा हुआ था . वह बड़े सधे हुए ढंग से चलती थी . सधे हुए तरीके से उठती - बैठती थी . और - - - और बातचीत का ढंग भी बेहद सधा हुआ था . उसके बात करने के अंदाज़ और शब्दों के चयन से ही प्रतीत होता था कि कोई बुद्धिजीवी महिला बात कर रही है .
क्योंकि वह खूबसूरत थी , इसलिए गुलशन ने उसे गौर से देखा . और फिर - - - खूबसूरत लड़कियों को ध्यान से कौन नहीं निहारता ! लड़का सोचता है - - - काश ये मेरी बीबी होती . बूढ़ा सोचता है - - - काश ये मेरी बहू होती . लड़की सोचती है - - - ये मेरी भाभी होती . तात्पर्य ये है कि सभी अपने - अपने ढंग से सोचते हैं कि खूबसूरती जितना अधिक संभव हो - - - किसी न किसी बहाने आँखों के सामने रहे . दिल - दिमाग को सुख पहुँचाये . और यही बात - - - बिल्कुल यही बात खूबसूरत लड़कों पर भी लागू होती है .
प्रोफ़ेसर साहब ने गुलशान का ध्यान भंग किया -- " घर कहाँ है तुम्हारा ? "
" कहीं नहीं . "
" क्या मतलब ? आखिर कहीं तो रहते होगे ? " प्रोफ़ेसर साहब ने चौंक कर पूछा
" हाँ - - - रहता तो हूँ - - - पर घर में नहीं - - - मकान में . और घर और मकान में बड़ा अन्तर होता है . घर उसे कहते हैं , जहां भरा पूरा परिवार हो . शान्ति और सौहाद्र का साम्राज्य हो . और मकान - - - मकान में इन सबका अभाव होता है ."
" ओ s s s ह - - - तो क्या तुम्हारा परिवार नहीं है ? " गेसू की जिज्ञासा पसीजी .
गुलशन की पीड़ा मुखरित हुई -- " परिवार ही क्या - - - मेरा अपना कोई नहीं - - - कोई भी नहीं . "
और उस क्षण - - - गेसू , चंचल और प्रोफ़ेसर साहब ने एक साथ गुलशन की उदास आँखों में टीस के बादलों को उमड़ते - घुमड़ते , गरजते - तरजते देखा . दर्द के दरिया की भंवर के बीच में उलझ कर सुख को डूबते - छटपटाते देखा . भरी बहार के आबाद गुलशन में मनहूस बदशक्ल उल्लुओं को डरावनी आवाजें निकालते देखा . खड़ी फसल को जलाभाव में दम तोड़ते मुरझाते देखा . और - - - और बहार की छाती पर सवार पतझड़ को क्रूरता पूर्वक हँसते - खिलखिलाते देखा .
" सुनो ! " प्रोफ़ेसर साहब ने टोंका .
" हूँ . " गुलशन चौंका .
" करते क्या हो ? "
" जूतों की घिसाई . "
" मतलब ? "
" बेकार हूँ - - - बेरोजगार . स्ट्रीट लाइट की रौशनी में पढ़कर एम . ए . किया - - - फिर भी . "
" ओह . " प्रोफ़ेसर साहब के मुंह से एक सर्द आह निकली . बेहद ईमानदार व्यक्ति की बेरोजगारी पर . उसकी बेबसी और परेशानी पर .
सच ही तो है ! इस दुनिया में प्रायः दो ही तरह के व्यक्ति फटेहाल और ठनठन गोपाल हैं -- एक बेअक्ल और दूसरे अति ईमानदार . आम तौर पर किताबों में मिलने वाली चीज - - - ईमानदारी अपने दिल में किन - किन दर्दों के समंदर समेटे रहती है - - - और उसे अपने किये की क्या - क्या सजा भुगतनी पड़ती है , ये जानने की फुर्सत इस तेज रफ़्तार जमाने की जेब में कहाँ है !
प्रोफ़ेसर साहब ने कुरेदा -- " खर्चा कैसे चलता है ? "
" कहानी - कविता लिखता और ट्यूशन पढ़ाता हूँ . उसी से होने वाली सीमित आय से पेट को बहलाने की कोशिश करता हूँ और नौकरी तलाशने का असीमित धर्म निभाता हूँ ."
" ओह - - - तो तुम लेखक हो ! "
" हाँ - -- - दुर्भाग्य से हिन्दुस्तानी लेखक हूँ ." गुलशन ने थका - हारा जवाब दिया .
" सुनो - - - एक बात कहूं ! "
" कहिये ."
" मेरा घर मेरी आवश्यकताओं से अधिक बड़ा है . यकीन मानो - - - यह घर ही है , मकान नहीं . और इसका अधिकाँश भाग खाली पड़ा रहता है . जबकि तुम अकेले रहते हो . क्या तुम मेरे यहाँ रहना पसन्द करोगे ? बल्कि मै तो ये कहूँगा कि तुम हमारे साथ रहो . "
" हमदर्दी के लिए शुक्रिया . आपने मेरे साथ अपनापन दिखाया - - - यही क्या कम एहसान है मुझ पर . "
" अरे नहीं ! इसमें एहसान की कौन सी बात है बेटे !! आदमी ही आदमी के काम आता है - - - जानवर तो नहीं !!! " इतना कहकर प्रोफ़ेसर साहब ने मुस्करा कर फिर दबाव बनाया -- " अब देखना ये है - - - कि तुम मुझे आदमी समझते हो या जानवर . यदि मै तुम्हे आदमी नज़र आता हूँ , तब तो तुम्हे मेरी बात माननी ही पड़ेगी . "

[4]
Dr. Rakesh Srivastava is offline   Reply With Quote