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Old 05-02-2012, 09:45 PM   #10
Dr. Rakesh Srivastava
अति विशिष्ट कवि
 
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Default Re: उपन्यास : टुकड़ा - टुकड़ा सच

( 6 )

पायल से हुई इस आकस्मिक भेंट ने गुलशन के ज़ख्मों पर पड़ चली पपड़ियों को खुरच डाला था . उम्मीद का एक दीपक - - - जो पायल की तलाश में उसने अब तक बड़े जतन से जला रखा था , वो पायल का जवाब पाकर दम तोड़ने की जिद कर रहा था . उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे , क्या न करे . एक तरफ पायल से उसका किया हुआ वादा , उससे पायल की याद भुलाने की सिफारिश कर रहा था - - - तो दूसरी ओर पायल के प्रति उसका असीम प्रेम - - - उसे पायल को याद रखने और प्राप्त करने की ईमानदार कोशिश करते रहने के लिए मजबूर कर रहा था . ज़िन्दगी के दोराहे पर खड़ा गुलशन ये निर्णय नहीं ले पा रहा था कि वह किस राह का मुसाफिर बने . कभी तो वह पायल को भूलने की बात सोचता था और कभी उसे प्राप्त करने की . इन्हीं दोनों विचारों के मध्य लटका हुआ गुलशन - - - इस वक्त खुद को किसी चमगादड़ का हमनस्ल अनुभव कर रहा था , जो कभी चिड़ियों के साथ रहना चाहता है और कभी चूहों के साथ - - - और दोनों में से किसी एक का भी हमसाया नहीं बन पाता .
अंततः विचारों के बवन्डर में उड़ता - भटकता गुलशन - - - वर्तमान के टीले से लुढ़क कर अतीत की गहरी खाईं में जा गिरा .
कॉलेज के दिनों में गुलशन और पायल बी . ए . में साथ - साथ पढ़ते थे .
पहली ही नज़र में गुलशन पायल की चुम्बकीय खूबसूरती की तरफ आकर्षित हो गया था . आकर्षित करने का प्रायः आसान और पहला साधन तो खूबसूरती ही है - - - भले ही वह आकर्षण बाद में अस्थायी सिद्ध हो . चारित्रिक गुण आदि की बात तो पीछे आती है .
पायल ने भी गुलशन की आँखों में उमड़े प्यार को स्वभावतः पढ़ लिया था . औरतों में यही तो एक गजब की विशेषता होती है कि वो आदमी की आँखों में झाँक कर और उसके व्यवहार का अतिसूक्ष्म विश्लेषण करके तत्काल समझ जाती है कि उस आदमी के ह्रदय में उसके प्रति कैसी भावनाएं हिलोरें ले रही हैं . अब ये एक अलग बात है कि वो अपनी सोच और सुविधानुसार इसकी कैसी प्रतिक्रिया प्रकट करे - - - या फिर इसे सिरे से ही अनदेखा करके बिल्कुल अनजान बनी रहे .
धीरे - धीरे गुलशन पायल से किसी न किसी बहाने मिलने लगा . व्यक्ति जिसे पसन्द करता है - - - उससे बार - बार मिलने के बहाने भी अपने संस्कारों के अनुरूप तलाश लेता है . वो पायल से शैक्षिक - नोट्स का आदान - प्रदान करने लगा .
पायल भी धीरे - धीरे गुलशन में मौन रूचि लेने लगी . क्योंकि गुलशन एक भला आदमी था और भले आदमी में सभी दिलचस्पी लेते हैं . पढ़ाई में तेज और गंभीर गुलशन कॉलेज के लड़के - लडकियों में शराफत और सच्चाई का उदाहरण बन चुका था .
पायल को ख़ुशी थी कि गुलशन उसमें रस लेता था . वैसे ये बात किसी भी कॉलेज - बाला के लिए ख़ुशी और गुदगुदी का विषय है कि कोई लड़का उसमें रस ले - - - और तब तो सोने पर सुहागा वाली बात हो जाती है , जब रस लेने वाला लड़का शराफत और पढ़ाई में भी रस लेता हो .
धीरे - धीरे गुलशन तो पायल पर अपने प्रेम को प्रकट करने लगा - - - किन्तु इसी के साथ वह यह भी अनुभव कर रहा था कि पायल काफी कुछ संयम बरतते हुए उससे खुलकर कभी अपने मनोभाव व्यक्त नहीं करती थी . न जाने क्यों - - - वो सदैव मध्यमार्ग अपनाती रही और गुलशन के प्रति अपनी भावनाओं को उसके समक्ष स्पष्ट रखने में कतराती रही . गुलशन जब भी उससे अपने बारे में उसके विचार जानना था - - - तो वो सदैव भेद पूर्ण मादक मुस्कान के साथ चुप मार जाती . गुलशन का हसीं सपनों से सराबोर मन इस मादक मौन को सौन्दर्य द्वारा प्रेम की सहमति की एक अदा मान बैठा .
सच ही तो है - - - हमारे अजब मन के रंग - ढंग भी गज़ब निराले होते हैं . पहले तो वह किसी आकर्षक व्यक्तित्व के साथ एकतरफा प्रेम में पड़ता है - - - फिर अपने कथित प्रियतम के साधारण व्यवहार में भी अपने प्रेम का ऐसा अनुकूल प्रत्युत्तर जबरन ढूंढ निकालने की कला उसे आती है , जिसका वास्तव में कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं होता .
बी . ए . की परीक्षा संपन्न हुई . परिणाम निकला . दोनों पास हो गए . गुलशन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ . दोनों ने साथ - साथ एम . ए . में प्रवेश लिया .
परन्तु गुलशन चूंकि पुरुष था - - - इसलिए एक काम उसने और प्रारम्भ किया . उसने अपने लिए नौकरी की तलाश शुरू कर दी - - - क्योंकि बिना नौकरी के गरीब गुलशन पायल के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखने में सकुचाता था . उसके अकेले की बात और थी , जो वह ट्यूशन पढ़ाकर खुद पढ़ता व पेट पालता था . उसके विचार में , उसके लिए नौकरी अब बहुत जरूरी हो चुकी थी - - - अतः वह नौकरी ढूँढता रहा .
ऑफिसों के चक्कर काटते - काटते वह चकरघिन्नी हो गया - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा . नौकरी ढूंढते - ढूंढते उसके पैर बगावत करने लगे - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा . उसका धैर्य दामन छुड़ाने लगा - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा . उसकी आँखें उदास और मन निराश होते गए - - - मगर वह नौकरी ढूँढता रहा .
मगर अब वो ज़माना तो ज़िन्दा है नहीं - - - कि योग्यता को आवश्यकतानुसार शीघ्र ही उसका उचित पुरस्कार मिले . एक वही क्यों - - - आज के ज़माने में तो गुलशन जैसे न जाने कितने जरूरतमंद बेकारी की बीमारी के शिकार हैं . वैसे भी इस कम्प्यूटर - युग में नौकरी का अकाल पड़ा है . नौकरी निकलती ही कितनी हैं ! ज्यादातर तो पेटू कम्प्यूटर के पेट में समाती जा रही हैं . हाँ - - - उसे नौकरी नहीं मिली . वह बेकार का बेकार रहा .
गुलशन अनुभव कर रहा था कि ज्यों - ज्यों उसे नौकरी पाने में देर होती जा रही थी , पायल उसके हाथ से रेत की भाँति सरकती जा रही थी . दूर होती जा रही थी . पायल द्वारा उससे की जाने वाली मधुर मुलाकातें क्रमशः कम होकर अब औपचारिकता में बदलती जा रही थीं . लेकिन अपनी आँखों पर पायल के प्रेम का गहरा चश्मा चढ़ाये गुलशन ठीक - ठीक देख - समझ नहीं पा रहा था . वैसे भी जिसे मन नहीं मानता , उसे आँखें भी नहीं देख पातीं .
होते - करते - - - घंटे दिन का भोजन बन गये , दिन महीनों के पेट में समा गये और महीने वर्षों की खुराक बन गये . और इस बीच गंगा - जमुना के पुलों के नीचे से काफी पानी उसके अरमानों को लेकर बह गया - - - मगर न नौकरी मिलनी थी , न उस भाग्य हीन को मिली .
यहाँ तक कि गुलशन और पायल एम . ए . फाइनल की परीक्षा में जुट गये . और क्योंकि जुट गये थे - - - इसलिए पास हो गये . व्यक्ति पूरे मनोयोग से जिस कार्य में जुट जाता है , उसे पूरा होना ही पड़ता है .
कॉलेज की पढ़ाई की समाप्ति - - - उन दोनों दोनों की मुलाकातों के बीच खाँई बन गयी . वैसे तो पायल ने गुलशन को स्थान विशेष पर मिलते रहने का दिलासा दिया - - - मगर वो न आई . ये और बात है कि गुलशन बहुत दिनों तक - - - प्रायः उस स्थान पर जाकर पायल की प्रतीक्षा में बड़ी ललक से अपनी पलकों की कालीन बिछाता रहा और दिल में निराशा लपेट कर आता रहा .
और आज !
अब गुलशन की धारणा थी कि प्रायः औरत का दिल एक व्यवसायी का होता है . जो प्यार भी करती है - - - तो दिमागी तराज़ू पर तौल कर .
अचानक गुलशन को जैसे कुछ याद आ गया - - - और उसके हाथ सामने मेज पर रखी बोतल और गिलास की तरफ भटक गये .


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