Re: यात्रा-संस्मरण
केटसीटम' प्रजाति के कुछ पुष्प देखने में पक्षियों सरीखे दिखते हैं। इस प्रजाति का एक पुष्प आश्चर्यजनक रूप से किलकिला (किंग फिशर) सरीखा दिखता है मेरी समझ मे यह पक्षियों के रूप की नकल, पक्षियों को आकर्षित करने के लिए नहीं है, वरन वह मानव के पक्षी प्रेम का लाभ उठाने के लिए है। इस पक्षी की एक टाँग, जो वास्तव में एक तंतु है जो प्रजनन स्तंभ से निकलकर, ओष्ठ तक आती है।ज्योंही कोई कीडा या पतंगा इस ओंठ पर बैठता है और, अनजाने में ही, इस तंतु को स्पर्श करता है (अर्थात वह उसकी टाँग खींचता है), कि उसके ऊपर मधुर पराग कणों की वर्षा हो जाती है। उस तंतु के खिंचने से वह चाकू सी धार वाला तंतु पराग कणों को रखने वाली झिल्ली को काट देता है। झिल्ली के कटते ही, द्रव पराग कण बाहर निकलते हैं और हवा का स्पर्श पाते ही वे लगभग ठोस होकर, उस कीट पर गिरते हैं। आर्किडों में सचमुच मत्रमुग्ध करने की क्षमता है और विविधता है - रंग की, रूप की, आकार की, सुगंध की और परागण की।
गंतोक से 14 कि मी पर बहुत ही विशाल राष्ट्रीय ऑर्किडेरियम है। इसमें लगभग 300 जातियों के आर्किड हैं और कुछ उष्णकटिबंधीय ऑर्किडों के लिए उष्ण गृह भी हैं। यद्यपि हम लोग दिसंबरांत में घूमने गए थे, तब भी कुछ ऑर्किडों ने हिम्मत करके शीत पर अपनी रंगीन छटा बिखेर ही दी थी, किन्तु बहुत से ऑर्किड उष्ण गृह में तो बाहर की शीत से बेखबर होकर होली मना रहे थे। यूरोप में जो ऑर्किड पहले बहुत लोक प्रिय हुआ था उसका नाम 'वनीला' है (आइसक्रीम की याद तो नहीं आ रही है आपको ?) और ऐसा केवल उसकी हल्की मधुर तथा निराली सुगंध के कारण हुआ था।
सेमतांग के पहाडों पर चाय के बागान बहुत हैं। वहां से सूर्यास्त का दृश्य भी बहुत ही मनोरम होता है। इसलिए हम लोगों ने वहां सूर्यास्त का अनिवर्चनीय आनंद लिया। चाय का पौधा कोई 30 सेंटीमीटर ऊंचा होता है और यह बहुत ही पास-पास नाली के रूप में लगाया जाता है। दूर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे खेत में हरी कालीन बिछी हों। उस समय इसमें भी फूल नहीं लगे थे। सिक्किम की चाय भी हम लोगों ने खूब पी, इसमें जो महक और जायका आया वह भी निराला और आहलादकारी था। चाय की खेती सिक्किम में कुछ ही वर्षों से शुरू हुई है और ऐसा लगता है कि सिक्किम के उत्साही लोग चाय की खेती बहुत बढाना चाहते हैं।
रूमटेक गुंपा, पेमयांची के बाद सिक्किम का सबसे प्रसिध्द गुंपा है। यद्यपि सिक्किम में बौध्द धर्म की निंगमा शाखा सर्वाधिक प्रचलित है, कर्मा शाखा भी काफी प्रचलित है और रूमटेक इसी शाखा का प्रधान गुंपा है। यह गंतोक से 30 किलोमीटर की दूरी पर, एक छोटी सी पहाडी क़ो पृष्ठभूमि में लेकर बनाया गया है। इस गुंपा में लामाओं का शिक्षण बडे पैमाने पर होता है। और हम लोग जब देखने गए तब 20 से 5 वर्ष की उम्र तक के शिक्षार्थी लामा जमीन पर पंक्तिबध्द बैठकर धर्मग्रथों के श्लोकों को कंठस्थ कर रहे थे और एक वृध्द लामा एक कुर्सी पर बैठे हुए चुपचाप देख रहे थे। विशेष बात यह थी कि रूमटेक गुंपा के विशाल प्रांगण में ये शिक्षाथीं लामा कहीं भी बैठे हुए थे और अधिकतर दीवार के बहुत पास उसकी तरफ मुंह करके बैठे थे। उस वातावरण में बडे लामा को कुछ बोलना नहीं पड रहा था, एक छूट भी थी किन्तु अनुशासन जैसे स्वेच्छा से सब तरफ छाया था जिसके लिए मात्र उनकी उपस्थिति यथेष्ठ थी। समाज में इतना अनुशासन होना चाहिए कि पुलिस भी बस इसी तरह चुप देखती रहे।
इतने में दूसरी मंजिल पर दो लामा बहुत लंबी (लगभग 2 मीटर) तुरही समान, किन्तु आकार में बिल्कुल सीधे, वाद्यों को फूँक कर बजाने लगे। वह संध्याकाल का समय था और लगा कि वे संध्याकाल की पूजा का आह्वान कर रहे थे। उनकी गंभीर और भारी आवाज आकर्षित तो कर रही थी, किन्तु लाउड स्पीकरों समान विघ्न नहीं डाल रही थी। उसके बाद दो लामाओं ने एक शहनाई सरीखे वाद्य पर मधुर स्वरों में संगीत निकालना शुरू किया। ढलते सूरज की किरणें उनकी तुरही, शहनाई, और उनके घुटे हुए सिरों पर आकर्षक आभा दे रही थीं। लगता था जैसे थके हुए सूरज की थकान डूब रही है और शांति वातावरण में बढती जा रही है। मैंने अक्सर देखा है कि शाम का ही एक ऐसा वक्त होता है जब कुछ अजीब लगता है। कुछ सूनासूनापन, कुछ खालीपना लगता है कि कुछ नई विचारणा चाहिए, कुछ ऊंची चीज करना चाहिए, कुछ निराला काम करना चाहिए। संभवतः इसीलिए संध्या समय भी पूजा करने का विशेष विधान है, वरन एक, प्रकार के ध्यान और पूजन का नाम ही 'संध्या' है। इस तरह के कार्य - कर्मकाण्ड (रिचुअल) - व्यस्त दिन और उनींदी रात्रि के बीच एक मनोहर पुल बनाते हैं, खेल भी यह काम कुशलता पूर्वक निभाते हैं। यदि खेल भी न हों तब सिनेमा, दूरदर्शन या शराब भी साधारण जन के लिये, शायद कुछ अधिक ही सुविधाजनक पुल बनाते हैं।
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