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Old 29-06-2013, 09:39 AM   #302
Dark Saint Alaick
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Default Re: पथ के दावेदार

घड़ी में तीन बज गए। इसके बाद वह कब सो गई, पता नहीं, लेकिन उसे यह याद रहा कि नींद के आवेश में उसने बार-बार यह दोहराया था कि भैया, तुम अति मानव हो। तुम्हारे ऊपर मेरी भक्ति, श्रध्दा और स्नेह हमेशा अचल बना रहेगा। लेकिन तुम्हारी इस विचार बुध्दि को मैं किसी तरह भी ग्रहण न कर सकूंगी। भगवान करे, तुम्हारे हाथों से ही देश को मुक्ति मिले। लेकिन अन्याय को कभी न्याय की मूर्ति बनाकर खड़ा मत करना। तुम महान पंडित हो। तुम्हारी बुध्दि की सीमा नहीं है। तर्क में तुमको जीता नहीं जा सकता। तुम सब कुछ कर सकते हो। विदेशियों के हाथ से, पराधीनों के हाथ से, पराधीनों को जितनी लांछना मिलती है, दु:ख के इस सागर में हमारा प्रयोजन कितना है। देश की लड़की होकर क्या मैं यह नहीं जानती भैया? इसलिए अगर आवश्यकता को ही सर्वोच्च स्थान देकर दुर्बल चित्त मनुष्यों के सामने अधर्म को ही धर्म बना डालोगे तो फिर इस दु:ख का तुम्हें कभी अंत ही नहीं मिलेगा।

दूसरे दिन जब भारती की नींद टूटी, दिन चढ़ चुका था। लड़के दरवाजे के बाहर खड़े होकर पुकार रहे थे। झटपट हाथ-मुंह धोकर वह नीचे आ गई। दरवाजा खोलते ही कुछ छात्र-छात्राएं पुस्तकें-स्लेटें लिए अंदर आ गए। उन्हें बैठने को कहकर भारती कपड़े बदलने ऊपर जा रही थी कि तभी होटल के मालिक सरकार महाराज आ गए। बोले, “अपूर्व तुम को कल रात से ही....।”

भारती ने बात काटकर पूछा, “रात को आए थे?”

महाराज बोला, “आज भी सवेरे से बैठे हैं। भेज दूं?”

भारती का मुंह उतर गया। बोली, “मुझसे उन्हें क्या काम है?”

ब्राह्मण ने कहा, “वह तो मैं नहीं जानता बहिन जी। शायद उनकी मां बीमार हैं। उसी के संबंध में कुछ कहना चाहते हैं।”
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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