Re: सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)
आदिल रशीद 'तिलहरी'
नज़्म
मंज़िल-ऐ-मक़सूद
समझ लिया था बस इक जंग जीत कर हमने
के हमने मंज़िल-ऐ-मक़सूद पर क़दम रक्खे
जो ख़्वाब आँखों में पाले हुए थे मुद्दत से
वो ख़्वाब पूरा हुआ आई है चमन में बहार
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं
क्यूँ हक बयानी का सूली है आज भी ईनाम ?
क्यूँ लोग अपने घरों से निकलते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती हें दम कलियाँ खिलने से पहले ?
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूँ बहा कर भी ?
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?
क्यूँ आज बर्फ़ के खेतों में आग उगती है ?
अभी तो ऐसे सवालों से लड़नी है जंगें
अभी है दूर बहुत, बहुत दूर मंज़िल-ऐ-मक़सूद
शब्दार्थ:
मंज़िल-ऐ-मक़सूद = जिस मंज़िल की इच्छा थी
हक बयानी = सच बोलना
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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