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Old 08-11-2011, 11:10 PM   #8
GForce
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Default Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर

द्वितीय प्रकरण / श्लोक 13-25


मुझको नमन आश्चर्यमय ! मुझसा न कोई दक्ष है.
स्पर्श बिन ही देह धारूँ, जगत क्या समकक्ष है. [13]

मैं आत्मा आश्चर्य वत हूँ , स्वयं को ही नमन है,
या तो सब या कुछ नहीं, न वाणी है न वचन है. [14]

जहाँ ज्ञेय, ज्ञाता,ज्ञान तीनों वास्तविकता मैं नहीं,
अज्ञान- से भासित हैं केवल, आत्मा सत्यम मही. [15]

चैतन्य रस अद्वैत शुद्ध,में,आत्म तत्व महिम मही,
द्वैत दुःख का मूल, मिथ्या जगत, औषधि भी नहीं. [16]

अज्ञान- से हूँ भिन्न कल्पित, अन्यथा मैं अभिन्न हूँ,
मैं निर्विकल्प हूँ, बोधरूप हूँ, आत्मा अविछिन्न हूँ. [17]

में बंध मोक्ष विहीन, वास्तव में जगत मुझमें नहीं,
हुई भ्रांति शांत विचार से, एकत्व ही परमं मही. [18]

यह देह और सारा जगत, कुछ भी नहीं चैतन्य की,
एक मात्र सत्ता का पसारा, कल्पना क्या अन्य की. [19]

नरक, स्वर्ग, शरीर, बन्धन, मोक्ष भय हैं, कल्पना,
क्या प्रयोजन आत्मा का, चैतन्य का इनसे बना. [20]

हूँ तथापि जन समूहे, द्वैत भाव न चित अहो,
एकत्व और अरण्य वत, किसे दूसरा अपना कहो. [21]

न मैं देह न ही देह मेरी, जीव भी में हूँ नहीं,
मात्र हूँ चैतन्य, मेरी जिजीविषा बन्धन मही. [22]

मैं महोदधि, चित्त रूपी पवन भी मुझमें अहे,
विविध जग रूपी तरंगें, भिन्न न मुझमें रहे. [23]

मैं महोदधि चित्त रूपी, पवन से मुझमें मही,
विविध जगरूपी तरंगें, भाव बन कर बह रहीं. [24]

मैं महोदधि, जीव रूपी, बहु तरंगित हो रहीं,
ज्ञान से मैं हूँ यथावत, न विसंगति हो रही. [25]
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