Re: ब्लॉग वाणी
दिल से देखना भी सीखें
-अपूर्व कृष्ण
जाड़े में ठंड लगती है, मगर उसका लोगों को इंतजार भी होता है। जब ट्रंक से नेफ्थेलीन की गोलियों की गंध वाले स्वेटर, जैकेट, टोपी, मफलर निकलते हैं। जब शादी के जमाने में सिलवाए सूट-कोट के दिन फिरते हैं। जब सूरज के ठीक सिर के नीचे क्रिकेट खेलने का सुख लिया जाता है। रात को बैडमिंटन कोर्ट सजते हैं। आलू, छिमी, टमाटर की तरकारी और गाजर के हलवे का भोग किया जाता है। जाड़ों की नर्म धूप और...। आंगन में न सही छत या बरामदे पर लेटकर इस गाने वाली अनुभूति तो अपनी जगह है ही। लेकिन इस जाड़े का एक दूसरा चेहरा भी है जो सुहाना नहीं डरावना है। इसने पिछले साल यूरोप में साढ़े छह सौ लोगों की बलि ली। रूस, यूक्रेन, पोलैंड, चेक गणराज्य, बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, सर्बिया, क्रोएशिया, मॉन्टेनीग्रो, स्लोवेनिया। इन देशों में जाड़ा मौतें लेकर आया। मगर मरने वाले कौन थे? अधिकतर गरीब और बेघर-बेसहारा लोग। पता नहीं उनकी मौत का बड़ा जिम्मेदार कौन है। जाड़ा या गरीबी। पश्चिमी देश यूरोप, अमरीका। ये अमीर हैं और पुराने अमीर हैं, मगर गरीबी यहां भी बसती है और अक्सर दिखती भी है। बशर्ते देखने वाला देखना चाहे। लंदन में रनिवास बकिंघम पैलेस और प्रधानमंत्री आवास 10 डाउनिंग के निकट चमकते पर्यटक स्थल ट्रैफेल्गर स्क्वायर के पास तमाम रौनक के बीच कहीं दिखाई दे जाएंगे गरीब, होमलेस, बेघर। कहीं चुपचाप ठिठुरते। कोई मैग्जीन बेचते खड़े हुए या कहीं सड़क किनारे किसी दूकान के पास किसी कोने में गत्तों के बिछौने पर कंबल में लिपटे सोते हुए। ऐसे बेघरों की सहायता करने वाले एक चर्च के पास एक बोर्ड पर लिखा है - कई होमलेस लोग सारे दिन एक भी शब्द नहीं बोलते। कोई उनसे बात नहीं करता। बहुतों को डिप्रेशन या दूसरी मानसिक बीमारियां हो जाती हैं। बहुतेरे हार जाते हैं। आत्महत्या की कोशिश करते हैं। वहीं एक बेघर का अनुभव लिखा है - पहला दिन जब मुझे सड़क पर सोना था, मैं बहुत झिझक रहा था। मैं सड़क पर बैठा, गत्ते बिछाए। फिर अपने बैग से पानी, कप, चादर, चप्पल निकालना शुरू किया। डरते-डरते कि कहीं लोग मेरा वो सामान देख न लें। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, इसकी चिन्ता की कोई जरूरत ही नहीं। लोग हम जैसों की ओर देखते ही नही। पिछले दिनों एक पत्रिका में एक युवा टीटीई ने एक घटना के बारे में बताया। एक बार मुझे ट्रेन पर एक बूढ़ी महिला मिली बेटिकट। मैंने उसे 360 रूपए का फाइन लगाया। उसने बिना कुछ बोले दे दिया। बाद में देखा वो एक कोने में बैठी रो रही है। मैं उसके पास गया। वो पहले डर गई। फिर बाद में सहज हुई और बताया कि वो दाई का काम करती है। नर्सिंग की पढ़ाई कर रही अपनी बेटी से मिलने जा रही है, जिसने पैसे मांगे हैं। उसके पास केवल 500 रूपए थे। उस पांच सौ रूपए में से 360 तो उसने मुझे दे दिए थे। मैं परेशान हो गया। मैंने उसे पैसे लौटाने चाहे, मगर उसने मना कर दिया। बोली - ठीक है बेटा, तुम्हारे मन में दया है। मुझे तो तुम जैसे लोगों से दो अच्छे बोल की भी उम्मीद नहीं रहती। बेघर-लाचार हर तरफ हैं। हर मौसम में । जाड़ा हो या गर्मी। आंखें धोखा दे देती हैं। उन्हें देखने के लिए दिल चाहिए, जो होता तो सबके पास है, मगर कोई देखना नहीं चाहता।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
|