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Old 19-07-2013, 08:37 PM   #14
rajnish manga
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Default Re: मेरी कहानियाँ / कातरा

छः वर्ष का अंतराल कम नहीं होता. आज सोचती हूँ तो लगता है जैसे छः दिन में ही यह सब कुछ पाया, खोया और फिर पाने की कोशिश कर रही हूँ. मेरे अनुभव ने मुझे बताया कि व्यक्ति में असीम शक्ति का स्रोत छिपा है जो देश काल का मोहताज नहीं होता.

पिछले वर्षों की भाँती इस वर्ष भी मंडलीय प्रतियोगिता में हमारे नगर से दो टीमे गई थीं – एक लड़कों की और एक लड़कियों की. मैं लड़कियों की टीम का नेतृत्व कर रही थी. दूसरी लड़कों की टीम, मुझे पता लगा कि, किन्हीं लोकेश जी के नेतृत्व में जा रही थी.

जाते समय लोकेश जी जितने दूर थे और जितने अजनबी थे, वापसी पर वह उतने ही आत्मीय हो चुके थे. उनका निश्छल सौहार्द्य और स्नेहपूर्ण व्यवहार, गंभीरता और शिष्ट हास्य उनके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष थे जिन्होंने मुझे अभूतपूर्व रूप से उनकी ओर आकृष्ट किया था. उनके लिए मन में श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी. यूं भी वे मुझसे कम से कम दस वर्ष तो बड़े रहे होंगे. यह लोकेश जी से मेरी पहली भेंट थी. मैंने उनको घर आने का निमंत्रण दिया.

इस के बाद लोकेश जी हमारे घर पर आते रहे. हर बार उनके व्यक्तिव के नए पहलू खुलते, जीवन के कुछ नए रूप दिखाई देते और कई नई बातें उनके बारे में मालूम होतीं. वह लगभग 40 वर्ष के स्वस्थ व्यक्ति थे. शादी अभी तक न की थी. वह तो कहते थे कि शादी का विचार ही न आया. अक्सर उनके शैक्षणिक अनुभव भी मेरे काम आते.

लोकेश जी के प्रति मेरी श्रद्धा ह्रदय में गुदगुदी करने वाली निकटता में तब्दील होने लगी. इस भावना को क्या नाम दूँ? क्या यह प्यार है या यह मेरे ह्रदय की कोई दुर्बलता है? क्या मुझे प्यार करने का कोई हक़ है? क्या मैं किसी पुरुष द्वारा चाहे जाने के योग्य हूँ? अथवा, चेतन होते हुए भी जड़ता का नाटक करना मेरी नियति है? इसी वैचारिक उहापोह के पथरीले रास्तों से होता हुआ लोकेश जी के प्रति मेरा प्यार छटपटाने लगता था. इससे पहले कि पत्थरों से टकराकर मैं अपने व्यक्तित्व के टुकड़े कर लेती, लोकेश जी ने आगे बढ़ कर मेरा हाथ थाम लिया और मुझे सम्हाल लिया. हम दोनों ही एक दूसरे के प्रति आकृष्ट थे, हम दोनो जैसे एक दूसरे की तलाश कर रहे थे. उनके एक उद्गार में मेरा जीवन प्रकाशित कर दिया.

वर्षों के अंतराल के बाद वही चंचलता, वही अल्हड़ता, वही बालपन आज जैसे लौट कर आ गया. मेरी प्रसन्नता की आज कोई सीमा नहीं. ह्रदय की गति मेरी पकड़ में नहीं आ रही. ओह ईश्वर! तूने एक साथ ढेरों खुशियाँ मेरी झोली में डाल दीं. मुझे डर है कहीं मैं दीवानी न हो जाऊँ. रह रह कर लोकेश जी का सौम्य मुख-मंडल मेरी कल्पना के झरोखों से सम्मुख आ जाता है और मैं उनके विचार मात्र से लाज से भर जाती हूँ.

“मन्नी, सच कहूं! मुझे आज तक जिस लडकी की तलाश थी वो तुम हो, तुम्हीं हो,” मैं बहुत थक गया हूँ, मुझे तुम्हारा साथ और सहारा चाहिये, हम दोनों के लिए यह भी किसी वरदान से कम नहीं था कि हम दोनों के माता पिता ने भी हमारी नयी ज़िंदगी के लिए आशीर्वाद दिया.
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