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Originally Posted by deepuji1983
की है कमाई बहुत सपने हज़ार बेचकर
हम बावकार हो गए किरदार बेचकर
लब थरथरा रहे है इश्क के इज़हार को
लूट रही है रंगीनियाँ वो प्यार बेचकर
गुजरता है समां इश्क की दरयाफ्त मे
हो रहा है लेन-देन मनुहार बेचकर
ले रही है जिंदगी बेचैन सी करवटे
हंस रहा आदमी संस्कार बेचकर
बचपन करहा रहा ममता की गोद मे
दस्ती होता बालहित आहार बेचकर
बोलती आँखों मे दम तोडती है उम्मीद
फन जी रहा अब यहाँ फनकार बेचकर
बानगी है जीस्त की अहसान बेचना
कर रहे है मोल भाव विकार बेचकर
बदहाल जिन्दगी तरसती कोड़ियों को 'रौनक'
है सूद बढा रहा वजन कर्ज़दार बेचकर
दीपक खत्री 'रौनक'
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अति सुंदर रचना ..............
आपका बहुत आभार दीपक जी .......