Re: मेरी रचनाएँ -7 - दीपक खत्री 'रौनक'
ग़ज़ल
चल पड़ा वो जानवर शिकार पर
बागबां परेशान हदे दीवार पर
चौकन्ना रहना रस्ते अनजान सब
नज़रें वहशी है आमादा वार पर
कामयाबी खोज हसरते कब थमी
दौड़ पहुंची अब अन्तिम कगार पर
आबला पा खूब मकबूल अब तो
जूते पड़ें जब रास्ते के परस्तार पर
क़दरदा लाखों है 'रौनक' के अब तो
लग गये अब चार चाँद दस्तार पर
दीपक खत्री 'रौनक'
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