Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
कैंची , मैगजीन और तस्वीरें समेट कर पढ़ने की मेज की दराज में रख देती है। किताबें बैग में बंद करके उसे एक तरफ सीधा खड़ा कर देती है।
पुरुष एक : तो लोगों को भी पता है वह आता है यहाँ ?
स्त्री : (एक तीखी नजर डाल कर) क्यों, बुरी बात है ?
पुरुष एक : मैंने कहा है बुरी बात है ? मैं तो बल्कि कहता हूँ, अच्छी बात है।
स्त्री : तुम जो कहते हो, उसका सब मतलब समझ में आता है मेरी।
पुरुष एक : तो अच्छा यही है कि मैं कुछ न कह कर चुप रहा करूँ। अगर चुप रहता हूँ, तो...।
स्त्री : तुम चुप रहते हो। और न कोई।
अपनी चीजें कुरसी से उठा कर उन्हें यथास्थान रखने लगती है।
पुरुष एक : पहले जब-जब आया है वह, मैंने कुछ कहा है तुमसे ?
स्त्री : अपनी शरम के मारे ! कि दोनों बार तुम घर पर नहीं रहे।
पुरुष एक : उसमें क्या है ! आदमी को काम नहीं हो सकता बाहर ?
स्त्री : (व्यस्त) वह तो आज भी हो जाएगा तुम्हें।
पुरुष एक : (ओछा पड़कर) जाना तो है आज भी मुझे...पर तुम जरूरी समझो मेरा यहाँ रहना, तो...।
स्त्री : मेरे लिए रुकने की जरूरत नहीं। (यह देखती कि कमरे में और कुछ तो करने को शेष नहीं) तुम्हें और प्याली चाहिए चाय की ? मैं बना रही हूँ अपने लिए।
पुरुष एक : बना रही हो तो बना लेना एक मेरे लिए भी।
स्त्री अहाते के दरवाजे की तरफ जाने लगती है।
: सुनो।
स्त्री रुक कर उसकी तरफ देखती है।
: उसका क्या हुआ...वह जो हड़ताल होनेवाली थी तुम्हारे दफ्तर में ?
स्त्री : जब होगी पता चल ही जाएगा तुम्हें।
पुरुष एक : पर होगी भी ?
स्त्री : तुम उसी के इंतजार में हो क्या ?
चली जाती है। पुरुष एक सिर हिला कर इधर-उधर देखता है कि अब वह अपने को कैसे व्यस्तरख सकता है। फिर जैसे याद हो आने से शाम का अखबार जेब से निकाल कर खोल लेता है। हर सुर्खी पढ़ने के साथ उसके चेहरे का भाव और तरह का हो जाता है- उत्साहपूर्ण , व्यंग्यपूर्ण,तनाव-भरा या पस्त। साथ मुँह से 'बहुत अच्छे! 'मार दिया, 'लो' और 'अब'? जैसे शब्द निकल पड़ते हैं। स्त्री रसोईघर से लौट कर आती है।
|