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Old 12-09-2013, 06:40 PM   #3
jai_bhardwaj
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Default Re: कहानी : खुशी का अपराध - अनिल कान्त

गुप्ता जी कागजों की उल्टा-पल्टी कर रहे थे, जब रामधन ने झिझकते हुए उनके कमरे में प्रवेश किया । रामधन के उन्हें नींद से जगाने पर वे खींझ से भर उठे । रामधन के द्वारा अपनी समस्या बताने के दौरान वे गर्दन नीचे करके अपने काम में उलझे रहे और एकाएक नज़र ऊपर करके कॉल लैटर देखना चाहा । रामधन ने तब बाहर से अमर को बुलाया और कॉल लैटर दिखाने को कहा । बहुत देर देख लेने के बाद उन्होंने पूँछा कि क्या नाम है आपका ? प्रतिउत्तर में रामधन नाम सुनकर उनके गालों पर मुस्कराहट की लकीरें खिंच आयीं । उस एक पल अमर को लगा कि पिताजी का नाम चाहे जो होता किन्तु रामधन नहीं होना चाहिए । किसी आम आदमी का नाम रामधन रखना, उसके साथ सरासर अन्याय है । उसका नाम गरीबचंद, फकीरचंद जैसा कुछ भी तो रखा जा सकता है, जो उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाये ।

गुप्ता जी ने बहुत कुछ जाँच लेने के बाद कहा कि बिना गारंटी के तो लोन नहीं मिल सकता । आप के पास क्या गारंटी है कि आपका लड़का इंजीनियरिंग कर ही लेगा ? और यदि वह नाकामयाब हुआ तो उसके ऊपर बैंक के द्वारा खर्च किये गए पैसों का भुगतान कौन करेगा ? इस बात पर रामधन के छोटे से हुए मुँह को देखते हुए बोले कि मान भी लिया जाए कि यह पूरी कर भी ले तो इसकी क्या गारंटी है कि यह अगले दो बरस में नौकरी पर लग जायेगा और ब्याज सहित रकम वापस कर देगा ? बोलो है कोई गारंटी ?


रामधन की अंतरात्मा उस पल यही कह रही थीं कि साहब मेरा बेटा इंजीनियरिंग जरुर पूरी करेगा और नौकरी भी मिलेगी किन्तु ज़बान सभ्य बनी हुई थी । वो जानता था कि गरीब आदमी तभी सभ्य माना जाता है, जब वह अपनी ज़बान बंद रखे । और उसकी असभ्यता बर्दाश्त नहीं की जा सकती । रामधन की आँखें गिडगिडाने की मुद्रा में आकर छलक ही आयीं थीं किन्तु उससे होना कुछ नहीं था । ऐसा गुप्ता जी ने सरकारी नीति का हवाला देकर कहा था ।

इतवारी चाचा का मशवरा मृग मरीचिका ही साबित हुआ । बैंक से बाहर निकल आने पर एक चपरासीनुमा व्यक्ति उनके पास आया, जिसने यह बताया कि यदि वे पाँच हज़ार रुपये दे दें तो लोन दिलवा देगा । रामधन ने यह प्रस्ताव, देखता हूँ कहकर टाल दिया । और वापस निराशा के जंगल में चला आया । घर पर अम्मा के 'क्या हुआ?' पूँछने पर प्रतिउत्तर में ख़ामोशी ही सुनाई दी । इंसान सुख और दुःख का कितना भी बँटवारा कर ले, मिलता उसे इच्छा का छोटा टुकड़ा ही है । शाम को इतवारी चाचा के पास से नया मशवरा मिला कि जाकर एक बार एम.एल.ए. साहब से क्यों नहीं मिलते ? शायद कोई जुगाड़ बैठ जाए ।

इतवारी चाचा के पास सलाह-मशवरे का सदैव स्टॉक रहता था । आप पूँछे या न पूँछें, वे तमाम बातें चलते-चलते ही बता जाया करते थे । उन्होंने ही बताया था कि यह शहर फ़िरोज़ शाह तुगलुक़ ने बसाया था । इस शहर में कम से कम कोई भूख से नहीं मर सकता, हाँ लेकिन पेट से ज्यादा कोई कुछ बचा पायेगा इसकी गारंटी वे नहीं लेते । बस्ती के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि ये उन सभी लोगों के द्वारा स्वतः ही बस गयी, जोकि भिन्न-भिन्न गाँवों के छोर पर से पलायन कर आये थे । शहर में दो ही बड़े वर्ग हैं एक मालिक और दूसरा मजदूर । मालिक अपने होने की वजह से बड़ा और मजदूर संख्या में । सरकारी दफ्तर के कर्मचारियों को इस शहर में शामिल हुआ माना जा सकता था बस । इस काँच के शहर की ये सबसे बड़ी पहचान है, बताते हुए इतवारी चाचा लम्बी साँस खींचते थे ।

दो दिनों तक एम.एल.ए. साहब नहीं मिले थे और दिन में चार चक्कर लगाने के बाद रामधन थका हुआ नज़र आता था । तीसरे दिन अमर को साथ लेकर वो एम.एल.ए. साहब के बंगले पर पहुँचा तो पता चला कि आज एम.एल.ए. साहब घर पर ही हैं किन्तु एक आवश्यक मीटिंग में व्यस्त हैं । बैठक में गाँधी जी की तस्वीर लटकी हुई थी । जिसके नीचे लिखा हुआ था 'सत्य और अहिंसा से कोई भी युद्ध जीता जा सकता है' । अमर पिछले चार घंटों में इसे पूरे अड़तालीस बार पढ़ चुका था । और ना जाने क्यों उसे यह लग रहा था कि पचास बार पढ़ लेने पर उसकी फीस का बंदोबस्त हो जाएगा । अगले दो घंटों में वह सत्तर की गिनती गिन चुका था । उसे संतुष्टि का आभास हो रहा था ।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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