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Originally Posted by Dr. Rakesh Srivastava
मौसम को बदलने में तो लगती है बहुत देर ;
अदाएं हुस्न कि देखो, बदलना इसको कहते हैं.
कांटों के दिए ज़ख्म तो भर जाते हैं जल्दी ;
जो मिला करते फूलों से ,उन्हें नासूर कहते हैं .
जिगर पे ज़ख्म होता है ,कलम से खून बहता है ;
जहाँ शायर की हो खेती ,मोहब्बत उसको कहते हैं.
रचनाकार ~~ डॉ. राकेश श्रीवास्तवा
लखनऊ,इंडिया .
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बहुत दिनों बाद आपका दिलफरेब कलाम पढ़ने को मिला, डॉ. साहब. ऊपर की पंक्तियों ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया है. किसी शायर की बात याद आ रही है:
हम परवरिशे
लौहो-कलम करते रहेंगे (स्याही और लेखनी)
जो दिल पे गुज़रती है
रक़म करते रहेंगे. (दर्ज)
धन्यवाद्.